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गाथा १११ ] लब्धिसार
[ १०५ वर्तनकर किसमें संक्रमित करता है ऐसा पूछने पर 'सम्मत्ते' अर्थात् सम्यक्त्व कर्मप्रकृति में संक्रमित करता है यह निर्देश किया है ।
मिथ्यात्वका पूरा द्रव्य संक्रमण करने के बाद स्थित हुई सभ्यरिमथ्यात्व प्रकृति की ही मिथ्यात्व संज्ञा है। ऐसे जीवके जघन्यसे तेजोलेश्या होनी चाहिए। दर्शनमोहकी क्षपणा करते समय सर्वत्र हो वर्तमान शुभ तीन लेश्यायों में से अन्यतर लेश्या वाला ही होता है, अन्य रेश्या वाला नहीं होता, क्योंकि विशुद्धि के विरुद्ध स्वभाववाली कृष्ण, नील, कापोत लेश्यानोंका वहां अत्यन्त प्रभाव होने से निषेध है । अतः विशुद्धरूप परिणामों में से जघन्यरूप मन्दपरिणामों में विद्यमान दर्शनमोहनीयका क्षपकजीव भी तेजोलेश्या का उल्लंघन नहीं करता है ।
___ अब दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाले प्रस्थापक-निष्ठापकके सम्बन्ध में विशेष कथन करते हैं
णिढवगो तहाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । किदकरणिज्जो चदुसु वि गदी उत्पज्जदे जम्हा ॥१११॥ ---
अर्थ-प्रारम्भक काल के अनन्तर समय से लगाकर क्षायिकसम्यक्त्व ग्रहण के समय से पहले तक निष्ठापक होता है। यह निष्ठापक जहां दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ हुआ वहां ही या सौधर्मादिस्वर्गों में या कल्पातीत विमानों में या भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों में अथवा प्रथम घर्मानरक में होता है। अर्थात् निष्ठापक इतनी जगह हो सकता है, क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है ।
विशेषार्थ-दर्शनमोहकी क्षपणाको उद्यत हुए जीयके 'प्रस्थापक' संज्ञा कब प्राप्त होती है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । यथा--जब मिथ्यात्व प्रकृति के सर्व
१. ज. प. पु. १३ पृ. ५। २. क. पा. सुत्त. पृ. ४६० । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. ६ । ४. "ण्डिवगो चावि सव्वत्थ" । अर्थात् दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक चारों गतियों में होता,
(क. पा. गा. ११०; जीवस्थान चूलिका ८ सूत्र १२; ध. पु. ६ पृ. २४७) .. लेकिन भवन अकों और देवियों को छोड़कर (ज. प. पु. १३ पृ. ४)