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लब्धिसार
[ गाथा ११२ द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रमण कर देता है और उसके पश्चात् जब सभ्यग्मिथ्यात्व के सर्वद्रब्य को सम्यक्त्वप्रकृति में संक्रमण करता है, तब उसे 'प्रस्थापक' यह संज्ञा प्राप्त होती है । तथा मिथ्यात्व-सम्य रिमथ्यात्व का क्षय करके कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्ट होने के बाद यह जीव दर्शनमोहनीयको क्षपणका निष्ठापक कहलाता है । इसप्रकार प्रस्थापक-निष्ठापक भेद कहा गया ।
प्रस्थापक कौन होता है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । निष्ठापक कहांकहां पर स्थित जीव हो सकता है, यह बात इस गाथा में मूल में ही बताई जा चुकी है । जो कुछ विशेष है उसे यहां पर कहा जाता है
यह कृतकृत्य जीव यदि प्रथमसमय में मरता है तो नियम से देवों में उत्पन्न होता है अर्थात् कृतकृत्य होने के प्रथमसमय में ही यदि मरण करता है तो नियम से देवगति में ही उत्पन्न होता है, अन्य गतियों में नहीं। इसका भी कारण यह है कि अन्यगतियों में उत्पत्ति को कारणभूत लेश्या का परिवर्तन उस समय असम्भव है। इसी प्रकार कृतकृत्य जीव के तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल के अन्तिमसमयतक द्वितीयादि समयों में भी देवों में ही उत्पत्ति कर नियम जानना चाहिये । उसके बाद मरण करने वाला कृतकृत्य जीव शेष गतियों में भी, पहले बांधी आयु के कारण उत्पत्ति के योग्य होता है। कहा भी है "यदि नारकियों में, तिर्यंचयोनियों में और मनुष्य में उत्पन्न होता है तो नियम से कृतकृत्य होने के अन्तर्मुहूर्त काल बाद ही उत्पन्न होता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के बिना उक्त गतियों में उत्पत्ति के योग्य लेश्याका परिवर्तन उस समय सम्भव नहीं है। इसका भी कारण यह है कि कृतकृत्य होने पर यदि लेश्या का परिवर्तन होगा, तो भी पूर्व में चली आई हुई लेश्या में वह अन्तमुहर्न तक रहेगा, तत्पश्चात् ही लेश्या परिवर्तन सम्भव है । शेष कथन सुगम है ।
आगे ५ गाथाओं में अनन्तानबन्धोको विसंयोजनासम्बन्धी कथन करते हैंपुब्छ तिरयणविहिणा अरणं खु भरिणय टिकरणचरिमम्हि । उदयावलिवाहिरगं ठिदि विसंजोजदे णियमा ॥११२।।
१. क. पा. सुत्त पृ. ६४० । २. क. पा. सुत्त पु, ६५४ सूत्र ८७ । ३. ज. घ. पु. १३ पृ८७। ४. क. पा. सुत्त पृ. ६५४; ज.ध. पु. १३ प. ८७ ।