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गाथा १०६ ]
लब्धिसार
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जो नियम से मिध्यादृष्टि जीव है वह नियम अर्थात् निश्चय से जिनेंद्र द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है ।
शङ्का - इसका दया कारण है ?
समाधान - क्योंकि वह दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व ) के उदय के कारण विपरीत अभिनिवेशवाला है । इसलिये वह 'सद्दहइ असम्भाव' अपरमार्थ स्वरूप प्रसद्भूत अर्थ का ही मिध्यात्वोदयवश श्रद्धान करता है । वह 'उबद्दट्ठ' वा अणुबडट्ट" अर्थात् उपदिष्ट या अनुपदिष्ट दुर्भार्गका ही दर्शनमोह ( मिध्यात्व ) के उदयसे श्रद्धान करता है । इसके द्वारा व्युद्माहित और इतर इन दो भेदों से मिथ्यादृष्टि का कथन किया गया है । कहा भी है
तं मिच्छत्त' जमसद्दणं तच्चाणं होइ प्रत्थानं । संसइयमभिग्यं श्ररभिग्गहियं ति तं तिविहं ॥
अर्थ - तत्वों का और अर्थों का जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है । संशयिक, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से वह मिथ्यात्व तीन प्रकार का है ।
जिसप्रकार पित्तज्वर वाले मनुष्य को दूध आदि मधुर पदार्थ रुचिकर नहीं होते, क्योंकि पित्त के कारण मिष्ट पदार्थ भी कटुक प्रतीत होता है । इसीप्रकार मिथ्यादृष्टिजीव को तत्त्वार्थ का यथार्थ उपदेश रुचिकर नहीं होता, क्योंकि उसके हृदय में मिथ्या श्रद्धान बैठा हुआ है । इसलिये उसको मिथ्यामार्ग ही रुचता है ।
[ "जीवादि नौ पदार्थ का स्वरूप जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यथार्थ है या नहीं" इत्यादिरूप से जिसका श्रद्धान दोलायमान हो रहा है वह संशयिक मिध्यादृष्टि है । जो कुमागियों के द्वारा उपदिष्ट पदार्थों का श्रद्धान करता है वह अभिगृहीत मिध्यादृष्टि है । जो उपदेश के बिना शरीर आदि में अपनेपन की कल्पना करता है वह अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि है' 17
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ज. व. पु. १२ पृ. ३२२-२३ ।