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याथा १०७ ] लब्धिसार
[६५ नोट-- ऐसा प्रतीत होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के मिथ्यात्व अवयक की दृष्टि से उपर्युक्त कथन जयधवला में किया गया है ।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व भाव होता है इसलिये उसको औदायिकभाव कहना चाहिये था।
समाधान-सम्यग्मिथ्यात्व को औदयिकभाव नहीं कहा गया, क्योंकि मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से जिसप्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है, उसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं होता इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व को प्रौदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।
शंका-यदि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश नहीं करता तो उसको सर्वघाति क्यों कहा गया ?
समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करता है इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाति कहा हैं'। । शङ्का-जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व के उदयसे मिथ्यात्वका बंधक होता है उसीप्रकार क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति को बांधता है या नहीं ?
समाधान-सम्यग्मिथ्यादष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति को नहीं बांधता, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में दर्शनमोहनोयके बन्धके अभावका मुक्त कण्ठ होकर इस "सम्मामिच्छाइट्ठी दसणमोहस्सऽबंधगो होइ"२ इत्यादि गाथा सूत्र में उपदेश दिया गया है । (ज. ध. पु. १२ पृ. ३१३) दूसरे सम्यग्मिथ्यात्व बन्ध योग्य प्रकृति नहीं है सलिये भी उसका बन्ध सम्भव नहीं है।
___ जो सम्यग्मिथ्यादष्टि जीव है बह या तो साकारोपयोगवाला होता है या अनाकार उपयोगवाला होता है, क्योंकि दोनों ही उपयोगों के साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुण की प्राप्ति होने में विरोध का अभाव है । दर्शनमोह की उपशामना में प्रवृत्त हुए जीब के प्रथम अवस्था में जिसप्रकार उपयोग का नियम है उसप्रकार सम्यग्मिथ्याल्व
१. प. पु. १ सूत्र ११ की टीका पृ. १६६ । २. क. पा. गा. १०२। ३. गो. क. गाथा ३७ ।