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लब्धिसार
[प्र. स. चूलिका उपशम सम्यक्त्व काल के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय होने में विरोध उपलब्ध नहीं होता'
सम्मत्तपढमलभस्साणंतरं पच्छ्दो य मिच्छन ।
लंभस्स अपढमस्स दु भजिवय्यो पच्छयो होदि ॥५॥ अर्थ-सम्यक्त्व के प्रथम लाभ (उपशमसम्यक्त्व) के अनन्तर ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व ही होता है । अप्रथमलाभ (क्षयोपशम सम्यक्त्व) के ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व भजनीय है।
विशेषार्थ- यह कषायपाहुड़ की १०५ वी गाथा है । 'पच्छदो' यद्यपि 'पश्चात्' का वाचक है, किन्तु यहां पर 'पीछे का वाचक शब्द ग्रहण करके 'पूर्व' अर्थ किया गया है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का नियम नहीं है, सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी उदय हो सकता है जैसा कि उपरोक्त गाथा ३ व ४ में कहा गया है, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्व से अनन्तरपूर्व मिथ्यात्व का उदय नियमसे होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण के अभिमुख हो सकता है, अन्य नहीं । अतः यहां पर 'परछदो' का 'पीछे' अर्थात् सम्यक्त्व से पूर्व क्या अवस्था थी इस बात का ज्ञान कराने के लिये 'पूर्व अर्थ किया गया है। इसका समर्थन कषायपाहुड़ की जयधवल टीका से भी होता है जो इसप्रकार है
___ अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का जो प्रथम लाभ होता है उसके 'अणंतर पच्छदो' अनन्तरपूर्व पिच्छली अवस्थामें मिथ्यात्व ही होता है, क्योंकि उसके प्रथमस्थिति के अन्तिम समयतक मिथ्यात्व के अतिरिक्त प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। 'लभस्स अपढमस्स दु' अर्थात् जो नियमसे अप्रथम सम्यक्त्व का लाभ है उसके अनंतर पूर्व अवस्था में मिथ्यात्व का उदय- भजनीय है। कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व (क्षयोपशम सम्यक्त्व) या प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करता है और कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने का कथन--
यहां उपशम सम्यक्त्व के रहते हुए जितना अन्तरकाल समाप्त हुआ है उससे जो अन्तरकाल शेष बचा रहता है वह उपशमसम्यक्त्व के काल से संख्यातगुरणा होता है ।।
१.
ज
व.प.
ध
6404
प. ३११-१२ । १२ पृ. ३१७, घ. पु. २५. २६८; घ.पू. ६५.२४२; क.पा. मृत्त प. ६३५ ।