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गाथा १०४ ]
लन्धिसार
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अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य कहते हैं, उस द्रव्यमें से, अन्तरायामके निषकोंका अभाव था उन निषेकोंका सद्भाव करने के लिये कितना एक (कुछ) द्रव्य दिया जाता है । उस देव द्रव्य का कितना प्रमाण है यह जाननेका विधान कहते हैं
___ नानागुणहानिमें स्थित सम्यकबाकृतिकी दिलीप मिनिके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भाग पृथक् करके अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यमें "द्विषगुणहाणिभाजिदे पढमा"' इस सूत्र द्वारा साधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाग का भाग देने पर उस द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है, सो इसके बराबर अंतरायामके सर्व निषेकोंको चय रहित स्थापित करके जोड़नेसे आदिधनका प्रमाण प्राप्त होता है । 'पबहतमुखमाविधन इस करण सुत्रसे अन्तरायामप्रमाण गच्छसे उस प्रथम निषेकको गुणा करने पर अन्तरायामके निषेकोंका आदिधन प्राप्त हुआ। तथा द्वितीय स्थितिके नीचे अन्तरायामके निषेक हैं इसलिये द्वितीयस्थितिके आदि निषेकसे चय वृद्धि (चढ़ते) क्रमसे अन्तरायामके निषेक हैं। चयका प्रमाण प्राप्त करने की विधि कहते हैं
द्वितीय स्थितिकी प्रथमगुणहानिके प्रथमनिषेक से अधस्तनवर्ती अन्तरायाम सम्बन्धी गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य दोगुणा प्रमाण युक्त चय है। इसको दो गुणहानिका भाम देनेपर अन्तरायाममें चयका प्रमाण प्राप्त होता है । "सैकपवाहतपक्षवलचरहतमुत्तरधन" इस सूत्रसे यहां अन्तरायामप्रमाण गच्छ है, सो एक अधिक गच्छसे गच्छके आधेको गुणा करके पुनः चयसे गुणा करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। इसप्रकार प्राप्त प्रादिधन और उत्तरधन (चयधन) को जोड़नेपर जो प्रमारण प्राप्त हुआ उतना द्रव्य उक्त अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य से ग्रहणकर अन्तरायाममें देना । द्वितीय
१. इसका अर्थः-प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणाका द्रव्य-सर्वद्रव्य : साधिक डेढ़ गुणहानि । ( गो.
जी. गा. ५६ को टीका व ध. पु. १० पृ. १२२) मादिद्रव्यको पदसे गुणा करने पर प्रादिधनका प्रमाण निकलता है। ( गो. जी. मा. ५१ की
टीका; गणितसारसंग्रह अ. २०६३ ) ३. इसका अर्थ- एक अधिक पदसे गुणित ‘पदका आधा' गुरिणत घय = उत्तरधन ( पद+१)x
(पद) ४ चय= {पद+ १) पद X चय =उत्तरधन । यहां "व्यकपदार्धन चयगुसो गच्छ उत्तर धनं" सूत्र नहीं लगता, क्योंकि अन्तरायामके निषेकों को द्वितीय स्थिति के प्रथम निषेकवत माननेपर कोई भी निषेक अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी नहीं बनता । अन्तरांयामका सर्वहोन निषेक भी एक चयसे अधिक करने पर बनेगा अतः "सैकपदाहत..." इत्यादि कहा।