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गाथा १०२-१०३ ] लब्धिसार
[८७ अथानन्तर उपशमसम्यक्त्वकालके अनन्तर उदययोग्य कर्मविशेषका कथन करते हैं
'अंतोमुत्तमद्धं सम्बोवणले होरि उवांतो ! तेण परं उदमो खलु तिषणेक्कदरस्स कम्मरस ॥१०२॥
अर्थ-अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशमसे उपशान्त रहता है इसके पश्चात् नियम से तीन कर्म प्रकृतियों में से किसी एक का उदय होता है ।।
विशेषार्थ उक्त गाथा कषायपाहुड़ में दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वोपशम से अवस्थानकाल के प्रमाणका अवधारण करने के लिये आई है। गाथा सूत्रमें "अंतोमुहत्तमद्ध" ऐसा कहने पर अन्त रायाम का संख्यातवां भाग प्रमाण काल लेना चाहिए । यह पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्व से जाना जाता है।
गाथा सूत्र में "सध्योव समेण" ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मों के उपशम से ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश से विभक्त मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कर्मप्रकृतियों का यहां पर उपशान्तरूपसे अवस्थान होता है । "तेण परं उपओ खलु" उसके पश्चात् दर्शनमोह के भेदरूप तीनों प्रकृतियों में से किसी एक का नियम से उदय होता है ।
प्रब दर्शनमोहनीयकर्मके अन्तरायाम पूरणका विधान कहते हैंउघसमसम्मत्तुवरि दसणमोहं तुरंत रेदि । उदयिल्लस्सुदयादो सेसाणं उदयबाहिरदो ॥१०३॥
अर्थ-उपशम सम्यक्त्वकाल के ऊपर जो दर्शनमोह के अन्तरायाम का शेष भाग, उसको शीघ्र ही पुरता है । उदय वान प्रकृतिके द्रव्य को तो उदय स्थिति से देना प्रारम्भ करता है और शेष दो अनुदय प्रकृति के द्रव्य को उदयावलि से बाहर देता है।
१. ज.ध. पु. १२ पृ. ३१४ गाथा १०३. किन्तु वहां 'तेरस परं उदो' के स्थान पर 'तत्तो परमुदयो'
ऐसा पाठ है । ध. पु. ६ पृ. २४१ । क. पा. गा. १०३ । २. ज.ध. पु. १२ पृ. ३१४-३१५ ।