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लब्धिसार
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गाथा ६६ ]
प्रधानन्तर वर्शनमोहोपशमके काल में पायी जाने वाली विशेषता को
'उवसामगो य सव्वो णिवाघादो तहा णिरासाणो । उपसंते भजियव्यो णिरासणो चेव रवीणम्हि ॥६॥
अर्थ-दर्शनमोह का उपशम करने वाले सर्व जीव व्याघात से रहित होते हैं और उस काल के भीतर सासादनगुणस्थान को प्राप्त नहीं होते हैं। दर्शनमोह का उपशम होने पर सासादनगुणस्थान भजितव्य है, किन्तु क्षीण होने पर सासादनगुरणस्थान की प्राप्ति नहीं होती।
विशेषार्थ-कषायपाहड़ के सम्यक्त्व अनियोगद्वार नामा १० वें अध्याय की प्रथम चार गाथाएं प्रश्नात्मक हैं। उसके पश्चात् दर्शनमोह की उपशामना सम्बन्धी १५ गाथाएं हैं । उन १५ गाथाओं में से (लब्धिसार की यह ६६ वीं गाथा) तीसरीगाथा है । कषायपाहुड़ (जयधवल) पु. १२ में इस गाथा सम्बन्धी टीका को आधार रखते हुए उक्त गाथा का विशेषार्थ लिखा गया है
यह गाथा दर्शनमोह का उपशम करने वाले जीव के तीन करणों द्वारा व्यापृत अवस्थारूप होने पर नियाघात और निरासानपनेका कथन करती है। जैसे- सभी उपशामक जीव व्याघात से रहित होते हैं, क्योंकि दर्शनमोह के उपशम को प्रारम्भ करके उसका उपशम करने वाले जीव के ऊपर यद्यपि चारों प्रकार के उपसर्ग एक साथ उपस्थित होवें तो भी वह निश्चय से प्रारम्भ से लेकर दर्शनमोह की उपशमनविधि को प्रतिबन्ध के बिना समाप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस कथन द्वारा दर्शनमोह के उपशामकका उस अवस्था में मरण भी नहीं होता यह कहा हुआ जानना चाहिये, क्योंकि मरण भी व्याघात का एक भेद है ] "तहा रिणरासागो" ऐसा कहने पर दर्शनमोह का उपशम करने वाला जीव उस अवस्था में सासादन गुणस्थान को भी नहीं प्राप्त होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । "उवसंते भजियव्वों" अर्थात् दर्शनमोहके उपशान्त होने पर भाज्य है-विकल्प्य है अर्थात् वह जीव कदाचित् सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है और कदाचित् प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व
१. कषायपाहुड़ सुत्त पृ. ६३१; घ. पु. ६ पृ. २३६ ; जय धवल पु. १२ पृ. ३०२ ।