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लब्धिसार
[ गाथा ८६ विशेषार्थ-'पागालनं आगालः' अर्थात् द्वितीयस्थिति के कर्म परमाणुओं का प्रथम स्थिति में अपकर्षण वश पाना आगाल है । 'प्रत्यागालनं प्रत्यागालः' अर्थात् प्रथम स्थिति के कर्मपरमाणुओं का द्वितीयस्थिति में उत्कर्षण वश जाना प्रत्यागाल है। प्रथम और द्वितीय स्थिति के कर्मपरमाणुओं का उत्कर्षरण-अपकर्षण वश परस्पर विषय संक्रमण का नाम भागाल-प्रत्यामाल है । यह आगाल-प्रत्यागाल तब तक व्युच्छिन्न नहीं होता जब तक प्रथमस्थिति में एकसमय अधिक आवलि-प्रत्यावलि शेष रहती है ! अतएव प्रावलि-प्रत्यावलि को उसकी मर्यादा स्वरूप से गाथा सूत्र में निदेश किया है। प्रावलि कहने से उदयावलि का ग्रहण होता है प्रत्यावलि शब्द से उदयावलि से उपरिम दूसरी प्रावलि का रहा होता है। प्रथमस्थिति के प्रावलि-प्रत्यावलि मात्र शेष रहने पर आगाल-प्रत्यागाल के विच्छेद का नियम है ।
पावलि और प्रत्यावलि के शेष रहने पर मिथ्यात्व को गुणश्रेणी भी नहीं होती, क्योंकि दूसरी स्थिति से प्रथम स्थिति में कर्म परमाणुओं के आने का निषेध है। यदि कहा जाये कि प्रथमस्थिति में प्रत्यावलि के कर्म परमाणुओं का अपकर्षण करके गुणश्रेणी निक्षेप किया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उदयावलि के भीतर गुणश्रेणी निक्षेप का होना असम्भव है । प्रत्यावलि से अपकर्षित प्रदेशपुज का वहीं गणश्रेणी में निक्षेप होता है यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि अपनी प्रतिस्थापना में अपकर्षित द्रव्य के निक्षेप का विरोध है,' किन्तु शेष कर्मों की गुणवेरिण होती है ।
आगे प्रथमसम्यमत्वके ग्रहणकाल में होने वाले कार्य विशेषका कथन करते हैं
अंतरपटमं पत्ते उवलमणामो हु तस्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवट्ठाइदूण कुणदि तिघा ॥८६॥
अर्थ- अन्तर के प्रथम समय को प्राप्त होने पर उपशम सम्यग्दृष्टिजीव वहां पर मिथ्यात्व को अपवर्तन करके स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात के बिना तीन प्रकार करता है ।
१. २.
ज.ध. पु. १२ पृ. २७७-७८ । ज. प. पु. १२ पृ. २७६ ; क. पा. सुत्त पृ ६२८ सूत्र ६९ |
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