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लब्धिसार
[ गाथा ६ अन्तरकरण है, क्योंकि दर्शनमोहनीय के उपशामना में अन्य कर्मोके अन्तरकरणका अभाव है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सत्कर्म वाला जीव यदि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उन कर्मप्रकृतियोंका भी अंतरकरण इसी विधि से करता है, किन्तु उन प्रकृतियों सम्बन्धी नीचे की एक आवलिप्रमाण (उदयावलिप्रमाण) स्थितियोंके सिवाय उपरितन स्थितिसे लेकर ऊपर मिथ्यात्वके अन्तर सदृश अन्तर करता है।
अब अन्तरायामका प्रमाण एवं उसमें निषेक रचनाविधिका कथन करते हैंगुणसेढीए सीसं तत्तो संवगुण उवरिमठिदि च । हेढुवरिम्हि य भाषाहुझिय बंधम्हि संछुहदि ॥८६॥
अर्थ--गुणश्रेणी शीर्ष और उससे संख्यातगुणे उपरितन निषेकों के मिथ्यात्व द्रव्य को ग्रहण कर नीचे प्रथम स्थिति में और ऊपर उस समय वंधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आबाधा को उल्लंघ करके बंधने वाले कर्मों के निषकों के साथ द्वितीय स्थिति में देता है।
विशेषार्थ-गण श्रेणी शीर्ष अर्थात अनिवत्तिकरण काल से उपरिम विशेष अधिक गुणश्रेणी निक्षेप उस सबको तथा गुणश्रेणी शीर्ष से ऊपर अन्य भी संख्यात मुणी स्थितियों (निषेकों) को अन्तर के लिए ग्रहण करता है । अन्तर के लिए जितनी स्थितियों को ग्रहण करता है उसको अन्तरायाम संज्ञा है, उस अन्तरायाम से नीचे जितना अनिवत्तिकरण का काल शेष है वह प्रथम स्थिति है। उस अन्तरायाम से जितनी उपरितन कर्मस्थिति है वह द्वितीय स्थिति है । अन्तर के लिये जो द्रव्य ग्रहण किया गया है उसको प्रतिसमय फालि रूप से प्रथम स्थिति व द्वितीयस्थिति में देता है, किन्तु उस समय बंधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आबाधा में नहीं देता है । अन्तरफालियों में असंख्यातगुणे क्रम से द्रव्य को ग्रहण करता है। कुछ प्राचार्यों का यह मत है कि गणश्रेग्गिशीर्ष से नीचे संख्यातवें भाग स्थितियों का भी खण्डन करता है। एक स्थितिकाण्डक उत्कीरण काल के जितने समय हैं उतनी ही फालियों द्वारा अन्तर सम्बन्धी स्थितियों के द्रव्य का उत्कीरा किया जाता है । अन्तर करने के काल के चरम समय
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ज.ध.पु. १२ पृ. २७५