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लब्धिसार
[ गाथा ६४ विशेषार्थ-दर्शनमोहनीय की प्रथम स्थिति के चरम समय में होने वाले तथा अन्य कर्मों के गुणसंक्रमण काल के अन्तिम समय में जो अनुभागकांडक होता है उसका घात करने का जो अन्तर्नु तमनागनाल है ना अन्तिम अनुभागखंडोत्कीरण काल है जो कि आगे कहे जाने वाले अनुभाग कांडकोत्कीरण काल से स्तोक है। इससे इसीके संख्यातवें भागप्रमारण अर्थात् संख्यात पावलि विशेष से अधिक अपूर्वकरण के प्रथम समय में प्रारम्भ होने वाले अनुभागकांडकोत्कीरण का काल है, क्योंकि अन्तिम अनुभागकांडक से विशेष अधिक क्रम से संख्यातहजार अनुभागकांडक नीचे उतरने पर इसकी उपलब्धि होती है । इससे संख्यातगुणा काल अन्तिम स्थितिकांडकोत्कीरगण काल और स्थिति बन्धापसरण काल है ये दोनों परस्पर समान हैं, क्योंकि एक स्थितिकांडककाल के भीतर संख्यात हजार अनुभागकाण्डक होते हैं । मिथ्यात्व को प्रथम स्थिति के अन्त में होने वाला स्थितिकांडक और अन्य कर्मों का गुणसंक्रम काल के अन्त में होने वाला स्थितिकाण्डक, सो अन्तिम स्थितिकाण्डक काल है' ।।
तत्तो पढमो महिनो पूरणगुणसेडिसीसपढमठिदी। संखेण य गुणियकमा उवसमगद्धा विसेसहिया ॥६४||
अर्थ-चरम स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल से प्रथम स्थितिकाण्डकोत्कीरगा काल अधिक है । इससे सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र प्रकृति) के पूरग का काल संख्यात गुणा है । इससे गुणश्रेणीशीर्ष संख्यातगुणा है, इससे प्रथम स्थिति संख्यातगुणी है और इससे उपशम करने का काल विशेषाधिक है ।
___ विशेषार्थ-यद्यपि गाथा में अन्तर करने का काल नहीं कहा गया है, किन्तु कषायपाहुड़ चूणिसूत्रकार ने 'अन्तर करने का काल' इस अल्पबहुत्व में ग्रहण किया है। उसके अनुसार गाथा ६३ में पूर्वोक्त चरम स्थितिकाण्डकघात काल से अन्तर करने का काल और वहीं पर होने वाले स्थितिबन्ध का काल ये दोनों परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं, क्योंकि पूर्वोक्त काल से नीचे अन्तमुहर्तकाल पीछे जाकर इन दोनों कालों को प्रवृत्ति होती है। उससे प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण काल और स्थिति बंध का
१. ज. घ. पु. १२ पृ. २८६-८७ । २. ज. प. पु. १२ पृ. २८७ ।