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गाथा ९२-९३ ]
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उपशम सम्पादृष्टि के द्वितीय समय से लेकर जहां तक मिथ्यात्व का गुण संक्रम होता है वहां तक सम्यग्मिथ्यात्व का भी संक्रमण होता है, क्योंकि सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग के प्रतिभागरूप विध्मातगुणसंक्रमण द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्य का सम्यक्त्व में संक्रमण उपलब्ध होता है। इस गुगसंक्रमण के पश्चात् सूच्यंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रभावाला मिथ्यात्व द्रव्य का विध्यातसंक्रमण होता है । जब तक उपशमसम्यग्दृष्टि
द्वार
वेदक सम्यग्दृष्टि है । विध्यात् अर्थात् मन्द हुई है विशुद्धि जिसकी ऐसे जीव के स्थितिकांडक, अनुभाग कांडक और गुणश्रेणि आदि परिणामों के रुक जाने पर प्रवृत्त होने के कारण यह विध्यात संक्रमण है । जब तक मिथ्यात्व का गुणसंक्रमण होता है तब तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामों के द्वारा दर्शनमोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों के स्थितिकांडक घात और गुणश्रेणी निक्षेप होते रहते हैं, किन्तु उपशान्त अवस्था को प्राप्त मिथ्यात्व का स्थितिकांडक आदि का प्रभाव है । अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के उपरम (समाप्त) हो जाने पर भी पूर्व प्रयोग वश कितने ही काल तक अन्य कर्मों का स्थितिकांडक आदि होने में बाधा नहीं उपलब्ध होती' ।
ब५ गाथाओं में अनुभाग काण्डकोत्कीरणकाल आदि २५ पढों का अल्पबहुत्व कहते हैं
विदियकरणादिमादो गुणलंकमपूरणस्स कालोति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्प बहु ॥ ६२॥
अर्थ - पूर्वकरण के प्रथम समय से गुणसंक्रमणकाल के पूर्ण होने तक किये जाने वाले अनुभागकांङकोत्कीरणकालादि का ग्रल्पबहुत्व कहेंगे । ( इस प्रकार प्रस्तुत गाथा में आचार्यदेव ने आगे किये जाने वाले कथन की प्रतिज्ञा की है । }
अंतिम रसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहियो । तत्तो संखेज्जगुणो चरिमट्ठिदिखंडह दिकालो ॥६३॥
अर्थ -- ग्रन्तिम अनुभाग कांडकोत्कीरण काल से प्रथम अनुभाग कांडकोत्कीरणकाल विशेषाधिक है। उससे अन्तिम स्थितिकांडक काल व स्थितिबंधाप सरणकाल संख्यानगुणा है ।
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ध. पु. ६ पृ. २३५-३६; जयधवल पु. १२ पृ. २८२ से २८४ आधार से ।