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लब्धिसार
[ गाथा
इस प्रकार अनुभागापेक्षा अनन्तवें भाग रूप क्रम है । प्रर्थात् मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभाग से सम्यरिमथ्यात्व का अनुभाग अनन्तगुरगा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभाग सम्यक्त्वप्रकृति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है' ।
प्रथानन्तर गुणसंक्रमणको सीमा और विध्यातसंक्रमके प्रारम्भका कथन
करते हैं
पढमादो गुणसंकमचरिमोति य सम्ममिस्ससम्मिस्से |
अहि गदियाऽसंखगुणो विकादो संकमो तत्तो ॥ ६१ ॥
अर्थ -- गुणसंक्रम कालके प्रथम समय से अन्तिम समय पर्यन्त प्रतिसमय सर्प की गति के समान असंख्यातगुणे क्रम सहित मिथ्यात्वरूप द्रव्य है वह सम्यक्त्व और मिश्रप्रकृति रूप परिणमता हैं। इसके ( गुणसंक्रमण के ) पश्चात् विध्यात संक्रमण होता है ।
विशेषार्थ -- प्रथमसमयवर्ती उपशान्तं दर्शनमोहनीय जीव के द्रव्यमें से सम्यग्मिथ्यात्व में बहुत प्रदेशपुञ्ज को देता है, उससे असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्ज को सम्यक्त्व प्रकृति में देता है । प्रथम समय में सम्यग्मिथ्यात्व में दिये गये प्रदेशों से द्वितीय समय में सम्यक्त्वप्रकृति में असंख्यातगुणितं प्रदेशों को देता है और उसी दूसरे समयमें सम्यक्त्वप्रकृति में दिये गये प्रदेशों की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुरिणत प्रदेशों को देता है । इसप्रकार इस परस्थान अल्पबहुत्वं विधि से अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यंत गुणसंक्रमण के द्वारा मिथ्यात्व के द्रव्य में से सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व को पूरित करता है । यहां गुणसंक्रम भागहार प्रतिभांग है जो पल्योपम के असंख्यातवें भागं प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेशों के आने के निमित्त रूप गुणसंक्रम भागहार से सम्यक्त्व के प्रदेशों के आने का निमित्त गुणसक्रम भागहार असंख्यातगुणा है । स्वस्थान अल्पबहुत्व का कथन करने पर प्रथम समय में सम्यग्मिथ्यात्वं में संक्रमित हुआ प्रदेशपुञ्ज स्तोक है । दूसरे समय में संक्रमित हुआ प्रदेशपुञ्ज असंख्यात गुणा है । यह प्रसंख्यातगुणा क्रमं गुणसंक्रमण के अन्तिम समय तक जानना चाहिए । इसीप्रकार सम्यक्त्व का भी स्वस्थान अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। यहां
१. घ. पु. ६ पू. २३५ ।
२.
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ध. पु. ६ पृ. २३५; ज. व. पु. १२ पृ. २८२ ।