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गाथा ७४-७६ ]
लब्धिसार असंख्यातवांभाग है। इससे द्वितीयादि निषेकोंमें क्रमसे चयहीन द्रव्य दिया जाता है । प्रत्येक गुणहानिमें दीयमान द्रव्य आधा-प्राधा होता जाता है ।
पडिसमयमोक्कड्ड दि असंखएरिणदक्कमेण सिंचदि य । इदि गुणसेढीकरणं भाउगवजाण कम्माणं ॥७॥
अर्थ-प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे द्रव्यका अपकर्षण करके सिंचन करता है । आयुके बिना शेष कर्मोकी इसप्रकार गुणश्रेरिण करता है'।
विशेषार्थ-उपरितन द्वितीयादि सर्वसमयों में की जानेवाली गणवेगि संबंधी प्रथमसमयके विधानानुसार कथन करना चाहिए, विशेषता केवल यह है कि प्रथमसमयमें अपकर्षित किये गये प्रदेशाग्रसे द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको अपकर्षित करता है, द्वितीयसमयके प्रदेशाग्रसे तृतीयसमयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र अपकर्षित करता है । इसप्रकार यह क्रम सर्वसमयोंमें जानना चाहिए। प्रथमसमयमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रमे द्वितीयसमयमें स्थितिके प्रति दिये जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है । इसप्रकार सर्वसमयोंमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रका यही क्रम कहना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि प्रतिसमय गलित होनेसे जो काल शेष रहे उसके प्रावामके अनुसार अपकर्षितद्रव्य निक्षिप्त करता है ।
प्रधानन्तर दो गाथाओंमें गुणसंक्रमणका कथन किया जाता है-- पडिसमयमसंखगुणं दवं संकम दि अप्पसस्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधतसजादिपयडीसु ७५॥ एवं विह संक्रमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्लाणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेडिम्मि ७६।।
पर्य-प्रतिसमय बन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्रव्य असंख्यातगुणित क्रमसे बध्यमान स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है। प्रथमअनन्तानुबन्धीकषायका ऐसा
१. किमट्ठमाउगस्स गुणसेढिरिणक्खेसो गस्थि त्ति चे? ण सहायदो चेव । तत्थ गुणसे दिरिणक्खेव
पउत्तीए प्रसंभवादो। (ज. प. पु. १२ पृ. २६४; क. पा. सु. पृ. ६२५) २. ध. पु. ६ पृ. २२७ 1 ३. ज.ध. प. १२ पृ. २६५ ।