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गाथा ५२--८३ ] लब्धिसार
[ ६५ जितने अनुभाग-स्पर्धकों को जघन्यरूपसे अतिस्थापित कर उनसे नीचे के स्पर्धकरूप से अपकर्षित करता है वे जघन्य अतिस्थापना विषयक स्पर्धक एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धकों से अनन्तगुणे होते हैं, क्योंकि जघन्य प्रतिस्थापना के भीतर अनन्त प्रदेशगुरगहानि स्थानान्तरोंका अस्तित्व पाया जाता है । जघन्य प्रतिस्थापना स्पर्धकों को छोड़कर नीचे के शेष सर्व स्पर्धकोंका निक्षेपरूपसे ग्रहण करने पर वे निक्षेप-स्पर्धक जघन्य प्रतिस्थापना सम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं । अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकमें काण्डकरूपसे जो स्पर्धक ग्रहण किये गये वे निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धकों से अनन्तगुणे होते हैं, क्योंकि अपूर्वकरण के प्रथम समयमें द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्म के अनन्तवें भागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागको कांडकरूप से ग्रहण किया है।
अब प्रशस्त-प्रप्रशस्तप्रकृतिसम्बन्धी अनुभाग विशेषका कयन करते हैं'पढमापुरुघरसादो चरिमे समये पसत्थइदराणं । रससत्तमणंतगुणं अांतगुणहीणयं होदि ॥२॥
अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समय सम्बन्धी प्रशस्त प्रशस्त प्रकृतियों का जो. अनुभाग सत्त्व है उससे अपूर्वकरण के चरम समय में प्रशस्तप्रकृतियों का अनुभाग तो अनन्तगुणा बढ़ता हुआ तथा अप्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुरणा हीन होता हुआ अनुभाग सत्त्व है।
विशेषार्थ-अपूर्वकरण में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होने के कारण प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्तगुणा बढ़ता अनुभाग सत्त्व है तथा अनुभागकाण्डकघात के माहात्म्य से अप्रशस्तप्रकृतियों का अनन्तवा भाग अनुभाग सत्व चरमसमय में होता है ।
प्रब अनिवृत्तिकरण परिणामोंका स्वरूप और उसका कार्य कहते हैं-- विदियं व तदियकरणं पडिसमयं एक्क पक्क परिणामो। अण्णं ठिदिरसखंडे भगणं ठिदिबंधमाणुवई ॥१३॥
१. ज.ध. पु. १२ पृ. २६२-६३ । २. ध. पु. ६ पृ. २२६ । ३. घ. पु. ६ पृ. २२६-३० । ज. व. पु. १२ पृ. २७१ ।