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लब्धिसार
( গাঘ गुणसंक्रमण विसंयोजक कालमें होता है । शिवत्व' व सम्यग्मिध्यात्व' का गुण- . संक्रमण दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपणामें होता है । शेष अप्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम व क्षपकनेणियों में होता है ।
__विशेषार्थ-गाथा ७५ व क्षपणासार की गाथा (6-४००) शब्दशः एक ही हैं । गाथा ७५ प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रकरण में पाई है और गाथा ४०० का सम्बन्ध चारित्रमोहकी क्षपणासे हैं । बन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोंके द्रव्यका प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे संक्रमण होना गुणसंक्रमण है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके गुणसंक्रमण नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया व लोभका गुणसंक्रमण तो अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजना करनेवाले जीवके होता है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण इनकी ही क्षपणाके समय होता है। अन्य अबद्धयमान अप्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम व क्षपक इन दोनों क्षेगियों में होता है । प्रशस्त व अप्रशस्तरूप उद्घ लनप्रकृतियोंका उद्वेलनके अन्तिमकाडकमें गुणसंक्रमण होता है।
अब स्थितिकाण्डकका स्वरूप कहते हैंपढमं अवरवरद्विदिखंडं पल्लस्स संखभागं तु । सायरपुधत्तमेतं इदि संखसहस्सखंडाणि ७७॥
अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिखण्ड आयामका प्रमाण जघन्यसे तो पल्यका संख्यातांभाग और उत्कृष्ट से पृथक्त्वसागरप्रमाण है। अपूर्वकरणमें संख्यातहजार स्थितिखण्ड होते हैं।
विशेषार्थ-अघःप्रवृत्तकरणके कालको व्यतीतकर अपूर्वकरगामें प्रविष्ट हुआ जीव प्रथमसमय में ही स्थितिकांडक और अनुभागकांडकघात प्रारम्भ करता है, क्योंकि प्रपूर्वकरणको विशुद्धिसे युक्त परिणामोंमें इन दोनोंके घात करनेको हेतुता है । १. प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक उपशम सम्यक्त्वीके मिथ्यात्वका गरगसंक्रमण होता है। ... ('त्र. पु. १६ पृ. ४१५; ज.ध. पु. १२ पृ..२८४) २: - मिथ्यात्व को प्राप्त सम्यक्त्वीके ..अन्तिम काण्डकमें द्विधरम फाली तक गणसंक्रमण होता है।
(ध. पु १६ पृ. ४१६) टिप्पण नं० १-२ में कथित माय {गुणसंक्रम) क्षपणा तो होते ही हैं।
(ध. पु. १६ पृ. ४१५-१६) ३. ५ पु १६ पृ. ४०६ एवं गो. क. गा. ४१६ ।