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गाथा ७०-७३ ] लब्धिसार
[ ५६ सेसगभागे भजिद भसंस्खलोगेण तत्थ बहुभागं । गुणसेडीए सिंचदि सेसेगं च उदयम्हि "७०॥ उदयावलिस्स दब्वं आवलिभजिदे दु होदि मझधणं । रूऊणशाणघणणेण णिसेयहारेण ॥७१॥ मझिमधणमवहरिदे पचयं पचयं णिसेयहारेण । गुणिदे आदि णिसेयं विसेसहीणे कम तत्तो ॥७२|| मोक्कड्दिम्हि देदि हु असंखसमयप्पबद्धमादिम्हि । संखातीदगुणक्कममसंखहीणं विसेसहीणकमं ॥७३॥
अर्थ- उदयवान प्रकृतियोंका उदयानलिमें क्षेपण करने के लिए तथा उदय व अनुदयरूप दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंका उदयावलिसे बाहर क्षेपण करनेके लिए भागहार क्रमशः असंख्यातलोक व अपकर्षणभागाहारप्रमाग है । एकभागप्रमाण अपापितद्रव्य को पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर बहुभाग उपरितन स्थितियों में दिया जाता है । शेष एकभावको असंख्यातलोकसे भाजित करनेपर बहुभाग गुणधेरिगमें दिया जाता है और शेष एक भाग उदयावलिमें दिया जाता है। उदयावलिमें दिये जाने वाले द्रव्यको आवलिसे भाजित करनेपर मध्यधन होता है। एककम अवानके प्राधे को निषेकभागहारमें से घटानेपर जो शेष रहे उसका मध्यमधनमें भाग देोपर चयका प्रमारण प्राप्त होता है । चयको निषेकभागाहारसे गुणा करनेपर प्रथमनिषेक प्राप्त होता है, उससे ऊपरके निषेक चयहीन-चयहीन क्रमसे हैं। अपकर्षितद्रव्यमें से गुणश्रेणिके प्रथमनिषेकमें असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य देता है आगे गुरगथ रिणशीर्षतक असंख्यातगुरिणत क्रमसे देता है, अनन्तर असंख्यातगुणे हीन और उससे आगे क्रमसे चयहीन द्रव्य देता है।
विशेषार्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें डेढगुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको अर्थात् सत्त्वद्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे भाजितकर वह लब्धरूपसे प्राप्त एकखण्डप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकरके उस एकभागप्रमाण अपकर्षितद्रव्यमें पल्यके असंख्यातर्वेभागसे भाग देनेपर एक भागप्रमाण द्रव्यको असंख्यातलोकसे भाजितकर जो एकभागरूप द्रव्य प्राप्त हो उसे उदयावलिके भीतर गोपुच्छाकार रूपसे निक्षिप्त किया