________________
जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि
२५ वैवाहिक आचारों और रात्रि, चन्द्रोदय आदि के वर्णनों से आच्छादित हैं। छठे सर्ग के बाद भी कवि कथानक का सूक्ष्म संकेत करके, किसी-न-किसी वर्णन में जुट जाता है । अन्तिम पाँच सर्गों में से स्वप्नदर्शन तथा उनके फल-कथन का ही मुख्य कथा से सम्बन्ध है । दसवाँ तथा ग्यारहवाँ सर्ग तो सर्वथा अनावश्यक है । काव्य को यदि नौ सर्गों में ही समाप्त कर दिया जाता, तो शायद वह अधिक अन्वितिपूर्ण बन सकता। ऋषभदेव के स्वप्नफल बताने के पश्चात् इन्द्र द्वारा उसकी पुष्टि करना निरर्थक है । उससे देवतुल्य नायक की गरिमा आहत होती है। किन्तु इस विस्तार के लिये जयशेखर को दोषी ठहराना उचित नहीं है । कालिदासोत्तर महाकाव्यों की परिपाटी ही ऐसी थी कि उसमें वर्ण्य विषय की अपेक्षा वर्णन-शैली के अलंकरण में कवित्व की सार्थकता मानी जाती थी।
जैनकुमारसम्भव के आधारस्रोत - यद्यपि ऋग्वेद में 'वृषभ' अथवा 'ऋषभ' के संकेत खोजने का तत्परतापूर्वक प्रयत्न किया गया है, किन्तु ऋषभचरित के कुछ प्रसंगों की स्पष्ट प्रतिध्वनि सर्वप्रथम ब्राह्मण पुराणों में सुनाई देती है । ऋषभ के अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अभिषिक्त करके प्रवज्या ग्रहण करने, पुलहा के आश्रम में उनकी तपश्चर्या, भरत के नाम के आधार पर देश के नामकरण आदि ऋषभ के जीवनवृत्त की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की आवृत्ति लगभग समान शब्दावली में कई प्रमुख पुराणों में हुई है। भागवत'पुराण में आदि तीर्थंकर का चरित सविस्तार वर्णित है । भागवतपुराण में (५/३-६) नाभि तथा ऋषभ का जीवनचरित ठेठ वैष्णव परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। भागवत के अनुसार ऋषभ का जन्म भगवान् यज्ञपुरुष के अनुग्रह का फल था जिसके परिणामस्वरूप वे स्वयं सन्तानहीन नाभि के पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। आकर्षक शरीर, विपुल कीति, ऐश्वर्य आदि गुणों के कारण वे 'ऋषभ' (श्रेष्ठ) नाम से ख्यात हुए" । गार्हस्थ्य धर्म का प्रवर्तन करने के लिये उन्होंने स्वर्गाधिपति इन्द्र की कन्या जयन्ती से विवाह किया और श्रोत तथा स्मार्त कर्मों का अनुष्ठान करते हुए उससे सौ पुत्र उत्पन्न किये । महायोगी भरत उनमें ज्येष्ठ थे । उन्हीं के नाम के कारण १४. आचार्य तुलसी तथा मुनि नथमल : अतीत का अनावरण, भारतीय ज्ञानपीठ;
१९६६, पृ.७ १५. मार्कण्डेय पुराण, ५०/३६-४१, कूर्मपुराण, ४१.३७-३८, वायुपुराण (पूर्वार्द्ध),
३३.५०-५२, अग्नि पुराण, १०.१०-११, ब्रह्माण्डपुराण, १४.५६-६१, लिंग
पुराण, ४७.१६-२४. १६. तस्य ह वा इत्थं वर्मणा""चौजसा बलेन श्रिया यशसा"ऋषभं इतीदं नाम
चकार । भागवतपुराण, ५.४.२