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जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि में निर्मित कृति है । जयशेखर के शिष्य धर्मशेखर ने सम्वत् १४८२ (सन् १४२५) में, इस काव्य पर टीका लिख कर, गुरु के प्रति सारस्वत श्रद्धांजलि अर्पित की है।
देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये पद्यरे (!) पुरप्रवरे । नयनवसुवाधिचन्द्र वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयम् ॥"
उपर्युक्त चार ग्रन्थों के अतिरिक्त जयशेखर की कुछ अन्य संस्कृत तथा गुजराती रचनाएँ भी उपलब्ध हैं । आत्मकुलक, धर्मसर्वस्व, अजितशान्तिस्तव, संबोधसप्तिका, नलदमयन्तीचम्पू, न्यायमंजरी तथा कतिपय द्वात्रिंशिकाएँ उनकी मौलिक संस्कृत रचनाएँ हैं । त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध, परमहंसप्रबन्ध, प्रबोधचिन्तामणि चौपाई, अन्तरंग चौपाई की रचना गुजराती में हुई है। कथानक
जैनकुमारसम्भव के ग्यारह सर्गों में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के विवाह तथा उनके पुत्रजन्म का वर्णन करना कवि का अभीष्ट है । काव्य का आरम्भ अयोध्या के वर्णन से होता है, जिसके अन्तर्गत वहां के वासियों की धनाढ्यता, धर्मनिष्ठा तथा शीलसम्पन्नता का कवित्वपूर्ण निरूपण किया गया है । धनपति कुबेर ने, अपनी प्रिय नगरी अलका की सहचरी के रूप में, अयोध्या का निर्माण किया था। अयोध्या के निवेश से पूर्व, जब यह देश इक्ष्वाकुभूमि के नाम से ख्यात था, आदिदेव युग्मिपति नाभि के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे। सर्ग के शेषांश में ऋषभ के शैशव, यौवन, रूपसम्पदा तथा यशःप्रसार का मनोरम चित्रण है । द्वितीय सर्ग में देवगायक तुम्बुरु तथा नारद से यह जानकर कि ऋषभदेव अभी अविवाहित हैं, सुरपति इन्द्र उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने के लिये तत्काल अयोध्या को प्रस्थान करते हैं । इस प्रसंग में उनकी यात्रा तथा अष्टापद पर्वत का रोचक वर्णन किया गया है । तृतीय सर्ग में इन्द्र नाना युक्तियां देकर ऋषभ को गार्हस्थ्य जीवन स्वीकार करने के लिये प्रेरित करते हैं। उनके मौन को स्वीकृति का द्योतक मानकर इन्द्र उनकी सगी बहनों-सुमंगला तथा सुनन्दा से उनका विवाह निश्चित करता है और देववृन्द को विवाह के आयोजन का आदेश देता है । यहीं वधुओं की विवाहपूर्व सज्जा का कवित्वपूर्ण वर्णन है। ११. टीकाप्रशस्ति, ५. १२. जयशेखर की कतिपय अन्य लघु संस्कृत रचनाएँ अभी प्राप्त हुई हैं। हस्त
प्रति मुनि कलाप्रमासागर, जैन मन्दिर, माटुंगा, बम्बई के संग्रह में है। १३ "शाक्यों में भी भगिनी-विवाह प्रचलित था। महावंस में उल्लेख है कि लाट
देश के राजा सीलबाहु ने अपनी भगिनी को पटरानी बनाया। ऋग्वेद का यम-यमी संवाद भी द्रष्टव्य है"। -जगदीशचन्द्र जैन जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, वाराणसी, १९६५, पृ. ३, पा. णि. २.