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जैन संस्कृत महाकाव्य
देखते हुए यह शिष्य (टीकाकार) की गुरुभक्ति से उत्प्रेरित श्रद्धांजलि मात्र नहीं है। धम्मिलकुमारचरित की प्रशस्ति में जयशेखर ने स्वयं कविचक्रधर' विशेषण के द्वारा अपनी प्रबल कवित्वशक्ति को रेखांकित किया है।
धम्मिलचरित की प्रशस्ति में निरूपित अंचलगच्छ की परम्परा से स्पष्ट है कि जयशेखर, अंचलगच्छ के प्रख्यात पट्टधर, महेन्द्रप्रभसूरि के द्वितीय शिष्य थे। सहस्रगणा गांधी गोविन्द सेठ ने, सम्वत् १४१४ में, रत्नपुर में, जो जिनप्रासाद बनवाया था, उसकी प्रतिष्ठा जयशेखर की प्रेरणा से की गयी थी। पेथापुर के जिनालय की धातुमूर्ति पर अंकित लेख में जयशेखरसूरि का उल्लेख है, किंतु उसमें निर्दिष्ट वर्ष (सम्वत् १५१७) भ्रामक है। यदि वर्ष शुद्ध है तो जयशेखर का उल्लेख असंगत है । सं० १५१७ को निर्दोष मानने से, उक्त मूर्ति की प्रतिष्ठा के समय, जयशेखर की दीर्घायु (लगभग १२५ वर्ष) की पुष्टि किसी अन्य साधन से नहीं होती। धम्मिलचरित के रचनाकाल, सम्वत् १४६२, तक उनकी स्थिति असन्दिग्ध है।
जयशेखर शाखाचार्य, बहुश्रुत विद्वान् तथा प्रतिभाशाली कवि थे। संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में निर्मित उनकी विभिन्न कृतियां, उनकी विद्वत्ता की द्योतक हैं । प्रबोधचिन्तामणि की रचना सम्वत् १४३६ में सम्पन्न हुई थी। उपदेशचिन्तामणि तथा धम्मिलचरित एक ही वर्ष, सम्वत् १४६२ में लिखे गये थे। कुमारसम्भव उनकी सर्वोत्तम रचना है । जयशेखर को साहित्य में जो यश प्राप्त है, उसका आधार यही जैनकुमारसम्भव है । इसकी रचना सम्वत् १४६२ (१४०५ ईस्वी) से पूर्व हो चुकी थी। धम्मिलचरित को प्रशस्ति में जैनकुमारसम्भव के निर्धान्त नामोल्लेख से यह निश्चित है । जैनकुमारसम्भव सम्भवतः पन्द्रहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भिक वर्षों ५. धम्मिलकुमारचरित, प्रशस्ति, ७. ६. वही, ३-६. ७. पण्डित ही. छ. लालन, जैनगोत्रसंग्रह, पृ. ६५. ८. सं. १५१७ वर्षे सा. श्रीवीरवंशे श्रे. चांपा भार्या जयशेखरसूरीणामुपदेशेन स्वश्रेयसे श्रीसुमतिनाबिंब का० । बुद्धिसागर : जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग
१, लेखांक ६८८. ९- द्विषट् वारिधिचन्द्रांकवर्षे विक्रमभूपतेः ।
अकारि तन्मनोहारि पूर्ण गुर्जरमण्डले ॥ धम्मिलचरित, प्रशस्ति, १०. हीरालाल कापडिया : जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास, भाग २, प. १६३ १० प्रबोधचिन्तामणिरद्भुतस्तथोपदेशचिन्तामणिरर्थपेशलः ।।
व्यधायि यर्जनकुमारसम्भवाभिधानत: सूक्तिसुधासरोवरम् ॥ धम्मिलचरित, प्रशस्ति , ८.