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अहिंसा ]
[ २३ कही जा सकती।
परन्तु इस अपवाद को स्वीकार करके भी सब समस्याएँ पूरी न हुई; साथ ही इस अपवाद के पालन में भी नाना मत हो गये। उदाहरणार्थ
__शरीर में कीड़े पड़ गये हैं या कोई बीमारी हो गई है, उसकी चिकित्सा करना चाहिये कि न करना चाहिये ! पूर्व में
और पश्चिम में ऐसे लोग हुए हैं जो चिकित्सा करना ठीक नहीं समझते थे । सुकरात के भी 'पहिले यूनान में जेनो' [zeno] नामका एक तार्किक था, उसके अनुयायी शरीर में कीड़े पड़ जाने पर भी उनका हटाना अच्छा नहीं समझते थे, बल्कि कारणवश कोई कीड़ा गिर पड़ता था तो वे उसे फिर उसी जगह (अपने शरीर पर) उठाकर रख देते थे जिससे वह भूखी न मर जाय । जैनशास्त्रों में इतने तो नहीं, परन्तु इसी ढंगके कुछ चरित्र चित्रण मिलते हैं जिनमें चिकित्सा न कराना बहुत प्रशंसा की बात कही गई है । सम्भवतः ऐसे लोगोंकी तरफ़ से यह तर्क भी किया जा सकता है कि “रोगकी चिकित्सा की जायगी तो रोगके कीटाणु अवश्य मरेंगे । हम नीरोगी रहकर अधिक दिन जीवित रहें इसकी अपेक्षा रोगी रहकर थोड़े दिन जीवित रहें तो क्या हानि है ? चिकित्सा कुछ श्वासोच्छ्वासकी तरह जीवन के लिये अनिवार्य नहीं है । इत्यादि ।
सिर्फ यही एक प्रश्न नहीं है, किन्तु और भी अनेक प्रश्न हैं, जैसे-एक आदमी श्रीमान् है, फिर भी वह पैसेके लिये खून तक कराता है, परस्त्री हरण करता है, इसी नीच वृत्तिसे प्रेरित