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बांसठ
चारित्र चक्रवर्ती ज्योति रूप में रहा है। आचार्य शांतिसागर महाराज श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधक थे, जिनका पूर्ण जीवन आत्मा में विद्यमान अनंत शक्तिसम्पन्न आत्मत्त्व की अभिव्यक्ति द्वारा परमपद की प्राप्ति रहा है। श्रेष्ठ संतजन उस परमपद के लिए ही आंतरिक जीवन-शोधन में निरंतर निरत रहा करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था : “Each soul is potentially divine and the goal is to manifest the divinity that is within, by controlling nature external and internal”- gtforet att अपेक्षा प्रत्येक आत्मा दिव्यता समलंकृत है, जीवन का अंतिम ध्येय बाह्य तथा अंतरंग प्रकृति पर विजय प्राप्त करके उस आंतरिक दिव्यता की उपलब्धि करना है। ___ आज जो विश्व की नैतिक दृष्टि से अत्यन्त हीन परिस्थिति हो गई है, उस महारोग की औषधि सत्य, अहिंसा तथा अपरिग्रहत्व आदि से अलंकृत आचार्यश्री का पवित्र जीवन है। डॉक्टर राधाकृष्णन् के शब्दों में- “ये ही सच्चे तत्वज्ञानी हैं जो आत्मा के रोग को दूर करते है और हमें बंधन से बचाने में सहायक होते हैं।
आचार्य वीरसागरजी ने इन गुरुदेव के सम्बन्ध में एक चिरस्मरणीय महत्व की बात कही थी-“आचार्य महाराज का पुण्यप्रताप हमने मनुष्यों के सिवाय पशुओं पर भी देखा है। सन् १९२८ में आचार्य महाराज का संघ शिखरजी जा रहा था, रास्ते में बैलों के झुण्ड में से चार मस्त और उद्दण्ड बैल बंधन तोड़कर संघ की ओर भागे और आचार्य महाराज के पास पहुंचे। उनकी मुद्रा देखते ही वे एकदम शांत हो गये और उन शांति के सागर के चरणों के सन्मुख नतमस्तक हो गये। देखने वालों के नेत्रों में आँसू आ गये। लोग कहने लगे, इन जानवरों को इतना ज्ञान है कि साधुराज को प्रणाम करते हैं।" उनके ये शब्द बड़े मार्मिक थे"तीर्थयात्रा करनी है, तो शिखरजी जाओ, अद्भुत मूर्ति के दर्शन करना हो, तोश्रवणबेलगोला में भगवान् गोमटेश्वर की दिव्य प्रतिमा के समीप पहुंचों और यदि साधुराज के दर्शन करना हो, तो आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के समीप पहुँचो।" . अब वे साधुराज समाधि-मरण द्वारा जीवन को कृतार्थ कर स्वर्गीय निधि बन गये। उन क्षपकराज शांतिसागर महाराज के पुण्यचरणों को शतशत प्रणाम है। जिनेन्द्र से प्रार्थना है -
गुरुमूले यतिनिचिते-चैत्य-सिद्धान्त-वार्धि-सद्धोषे।
मम भवतु जन्म-जन्मनि सन्यसन-समन्वितं मरणम्॥ अर्थ : हे देव, जहाँ साधुओं का समुदाय विद्यमान हो, ऐसे आचार्य के समीप, जिन प्रतिमा के समीप अथवा जहाँ सिद्धान्तरूपी समुद्र की पुण्य घोषणा श्रवणगोचर होती हो, ऐसे स्थानों में जन्म-जन्म में मेरे समाधिसहित मरण हों। २६ जनवरी, १९७२
पं.सुमेरुचंद्र दिवाकर दिवाकर सदन, सिवनी (मध्यप्रदेश)
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