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साठ
चारित्र चक्रवर्ती आश्रित है।
अमल से जिंदगी बनती है, जन्नत भी जहन्नुम भी।
ये खाकी अपनी फितरत में न नूरी है, न नारी है। मोह के कारण अंधा जीव विपरीत दृष्टि बन जाता है, उससे ही सब प्रकार के उपद्रव आरम्भ होते हैं। उस मोह को वश करने का उपाय यशोविजय उपाध्याय के ज्ञानसार में इस प्रकार कहा है -
अंह ममेति मंत्रोयं मोहस्य जगदाध्यकृत् ।
अयमेव हि नञपूर्वः प्रतिमंत्रोपि मोहजित् ॥ अर्थ : मोहरूपी जादूगर जिस मंत्र के द्वारा संसार को मूर्ख बनाता है, वह मंत्र है यह मेरा है। इस मंत्र में निषेधवाचक शब्द “न' लगाकर जो यह विचार करता है कि यह जगत् मेरा नहीं है, मैं सुखी, दुःखी, धनवान्, गरीब आदि युक्त नहीं हूँ, तब (इस दृष्टि के द्वारा) मोह का जादू दूर हो जाता है।
जैसे सुवर्ण पीत वर्ण है, उसी प्रकार का पीलापन पीतल में भी पाया जाता है, इसो प्रकार सवर्श शासन के द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक दृष्टि एवं इतर जनों द्वारा कहीं जाने वाली आत्मा की चर्चा में सामान्यतया आध्यात्मिकता का नाम मात्र से साम्य है। रत्नत्रय की ज्योति से समलंकृत आत्मदृष्टि मोक्षमार्ग है। उस आत्मा का क्या स्वरूप है यह मुमुक्षु को श्रद्धान में रखना चाहिए, इस सम्बन्ध में कुंदकुंदस्वामी ने प्रवचनसार में कहा है -
अरस-मरुव-मगंधं अव्वतं चेदणागुणमसदं।
जाणअलिंगग्गहणं जीव-मणिदिट्ठ-संठाणं॥१७२॥ अर्थ : जीव को रस रहित, रूप रहित, गंध रहित, स्पर्श रहित, शब्द रहित, किसो चिन्ह के द्वारा न ग्रहण करने योग्य व विशिष्ट आकार रहित जानो। नियमसार में कहा है -
एगो ये सासदों आदा णाण-दंसणलक्खणो।
ऐसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥१०२॥ अर्थ : तत्त्वदृष्टि से विचारने पर ज्ञात होगा कि मेरी आत्मा अकेली है। वह अविनाशो है तथा ज्ञान-दर्शन स्वरूप है। इसके सिवाय शेष पदार्थ मुझ से भिन्न हैं। वे संयोग लक्षण वाले हैं। बाह्य पदार्थो का मेरी आत्मा के साथ तादात्म्य भाव नहीं है। ___ जो जीव का ध्यान राग, द्वेष, मोहादि विषधरों से व्याप्त जगत् की ओर खींचते हैं, वे इस आत्मा को जन्म-जरा-मरण के संकटों से नहीं छड़ा सकते।
भैया भगवतीदासजी ने प्रेमभरी वाणी में जीव को समझाते हुए प्रार्थना की है, कि वह जड़ शरीर तथा धन-धान्य, कुटुम्बादि के मोह का त्याग करके अपना उद्धार करे। उनके उद्बोधक शब्द हैं -
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