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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण २ ४ वादिचन्दमरिन अपन ज्ञानसर्यादयनाटकके चौथे ढेरके ढेर ग्रन्थों में से किसी ग्रंथका नाम भी पात्रकेमरी
अंकमें 'अष्टशती' नामक स्त्री पात्रम 'पाप' के की कृति रूपमै उसमें उल्लेखित नहीं मिलता; बल्कि प्रति कहलवाया है कि
पात्रकेमरीकी कृतिरूपमे जिनेन्द्रगुणमंन्तुति' नामके ___ "देव, ततोऽहमुनालिनदया श्रीमत्पात्रकसरि- एक ग्रंथका उल्लंग्ख पाया जाता है । और यह मुम्बकमलं गता न मानान्कृतमकलस्याद्वाभिप्रायेण ग्रंथ ही 'पात्रकेमरिम्तोत्र' ( पात्रकेमरीका रचा हुआ लालिता पालिताटमहसीनया पष्टिनीता । देव, स यदि म्तोत्र ) कहलाता है-विद्यानन्दस्तांत्र नहीं । इस नापालयिष्यन तदा कथं वामद्राक्षम ? "
म्तोत्रका प्रारंभ जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः' x पदम होता ___ अर्थात-(जब मैंने एकान्तवादियोंमे म्याद्वादका है-जिनेन्द्रकं गुणोंकी ही इसमें स्तुति भी हैम्वरूप कहा, नव व ऋद्ध होकर कहने लगद ओर इमलियभक्तामर तथा स्वयंभस्तोत्रादिकी तरह यही पकड़ा। मागं । जान नपान
इमका वास्तविक तथा सार्थक नाम जान पड़ना है । भयभीत हो कर श्रीमपात्रमर्गके मखकमलमं यथाः –कृतोऽन्यमतविध्वमा जिनेन्द्रगुगा । तुतिः । प्रवेश किया। संपर्णभ्याद्वादके अभिप्रायों को अच्छी
गतवः परमानन्दात्समर तमुग्वदायकः ॥ नरहम जानने वाले थे, इम लिये उन्होंने मेरा अली जिनेन्द्र गुगामम्नुतिर तव गनागपि प्रतुता।
भवन्यजिनक गां प्रतये पर कारगाम ॥ तरह लालन पालन किया और अप्रमहसीक द्वाग
+ यह ग्रथ मागिाकचन्द्रग्रथमालामं एक माधारगा टीक के साथ मुझे पुष्ट की । हे देव, व ( पात्रकेमरी ) यदि मुझं न , पालन तो आज मैं तुम्हें कैम देवती ?" इसका अभि
प्रकाशित हुया है, जिसके का अदिका कुछ पता नही। टीका के प्राय यह है कि अकलंकदेवका बनाया हा जो 'अष्ट
शुम्म मगलाचगणक तौर पर एक नीक रवा हुमा है जिसमें
'हन्पचनमा काग्प विप्रियतऽधना' यह एक प्रतिज्ञावाक्य है और शती' नामक ग्रंथ है. उम पढ़ कर जैनंतर विद्वान क्रद्ध हो गये और वे उम पर आक्रमण करनेकानय्यार हुए।
उमममा ध्वनित होता है मानों मूल प्रथका नाम 'हतांचनमयह देखकर पात्रकेमरी म्वामीन ‘अष्टमहस्री' नामक
रकार है और इगटीक में उमीक पोंकी विनिकी गई है। चुनांचे
५० नाथगमजी अपने अपने ग्रथपश्चियमें मा लिख भी दिया है। प्रसिद्ध ग्रन्थ रचकर उसके अभिप्रायांकीपष्टि की। इससे मालूम होता है कि अष्टमहनीके बनाने वाले विद्यानंदि
परन्तु अथक गदर्भको दग्वत हुए. यह नाम उमंक लिये किसी तरह भी दी पात्रकसग हैं।
अयुक्त मालूम नही होना। द्रव्यमग्रहकी बृह्मदेवकृत टं.कामें एक ५ श्रागे जो हुमचाका शिलालेग्य उधृत किया
स्थान पर बारह हजार लोक मत्र्या वाल 'पंचनमा कार' ग्रंथका
ख मिलता है और उसमें लघु मिद्धचक, यह सिद्धचक्र, जैम गया है, उसके अन्तिम वाक्यमे भी स्पष्ट होता है कि विद्यानन्दि और पात्रकेमरी एक ही थे।
कितने ही पार्टीका संग्रह बतलाया है । हो सकता है कि 'वृहतपच
नमा कार' नामका या तो वही मग्रह हो और या उसमे भी बड़ा ___ इन पाँच प्रमाणांस मेरी समझमें यह बात निम्म
कोई दुमा मग्रह तय्यार हुमा हो और उसमें पात्रकेसरिम्नोको भी दह हो जाती है कि पात्रकेसरी और विद्यानन्दि दानों एक ही हैं। "
गग्रहीत किया हो। और उसीकी यूनि पग्मे पात्रकेसरी स्तोत्रको
उतारने हा उपकी प्रतिक मंगलाचरगा इस स्तोत्रकी यत्तिक ऊपर द प्रमाणोंकी जाँच दिया गया हो । प्रथवा इसके दिये जानेमें कोई दमी ही गड़बड़ हुई इनमें तीसरे नम्बरका प्रमाण ता वास्तवमें कोई हो । परन्तु कुछ भी हो, टीकाका यह मगल पद 'क्षेपक' जान प्रमाण नहीं है क्योंकि इसमें कथाकोशान्तर्गत पात्र- पड़ता है। और इसलिये इसम स्तोत्रके नाम पर कोई असर नहीं कमरीकी जिम कथाका उल्लेख किया गया है उसमें पड़ता । साथ ही, इस सस्करणके अन्तमें दिये हुए सभाप्तिसूचक विद्यानन्दकी कहीं गन्ध तक भी नहीं पाई जाती- गद्यमें जो विद्यानन्दि' का नाम लगाया गया है वह संशोधक महाशय
और तो क्या, विमानन्दके नाममे प्रसिद्ध होने वाले की कृति जान पड़ती है।