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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ८, ९, १० षिक, सांख्य और वेदान्त दर्शन में । वैशेषिक दर्शन जबकि उसने चाहे इन नवतत्वोंका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न अपनी दृष्टि से जगतका निरूपण करते हुए उसमें मूल किया हो तो भी इनके ऊपर वह श्रद्धा रखता ही हा; द्रव्य कितने हैं ? कैसे हैं ? और उनसे सम्बंध रखने अर्थात् 'जिनकथित ये तत्व ही सत्य हैं ' ऐसी मचिवाले दूसरे पदार्थ कितने तथा कैसे हैं ? इत्यादि वर्णन प्रतीति को लिये हुप हो । इस कारण से जैनदर्शन में करके मुख्य रूप से जगत के प्रमेयों की ही मीमांसा नव तत्व जितना दूसरे किसी का भी महत्व नहीं है। करता है । मांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष का वर्णन ऐसी वस्तुस्थिति के कारण ही वा० उमास्वातिने अपने करके प्रधान रूप से जगत के मूलभूत प्रमेय तत्त्वों की प्रस्तुत शास्त्रक विपयरूप इन नवतत्वों को पसंद किया ही मीमांसा करता है । इसी प्रकार वेदान्त दर्शन भी और उन्हीं का वर्णन सूत्रों में करके उन सूत्रों के विजगत के मूलभत ब्रह्मतत्त्व की ही मीमांसा प्रधान रूप पयानरूप 'तत्वार्थाधिगम' ऐसा नाम दिया । वा० उगासे करना है । परन्तु कुछ दर्शनोंमें चारित्र की मीमांसा म्वाति ने नव तत्वों की मीमांसा में ज्ञेयप्रधान और मुख्य है, जैसे कि योग और बौद्ध दर्शन में । जीवन की चारित्रप्रधान दानों दर्शनों का समन्वय देखा; तो भी शुद्धि क्या ? उसे कैस साधना ? उसमें कौन कौन उन्होंने उसमें अपने समयमें विशेष चर्चाको प्राप्त प्रबाधक हैं ? इत्यादि जीवनसम्बंधी प्रश्नोंका हल योग माणमीमांसाके निरूपण की उपयोगिता महसूस की; दर्शनने हेय-दुःख, हेयरंतु-दुःग्वका कारण हान- इससे उन्होंने अपने ग्रंथको अपने ध्यानमें आने वाली मोक्ष, और हानोपाय-मांक्षका कारण इस चतुर्व्यह सभी मीमांसाओं से परिपूर्ण करने के लिये नव तत्त्व का निरूपण करके और बौद्धदर्शननं चार आर्य सत्यों के अतिरिक्त ज्ञानमीमांसाको विषय रूपसे स्वीकार का निरूपण करके, किया है । अर्थात् पहले दर्शनवि- करके तथा न्यायदर्शन की प्रमाणमीमांसा की जगह भाग का विषय ज्ञेयतत्त्व और दूसरे दर्शनविभाग का जैन ज्ञानमीमांसा कैसी है उसे बतलानेके लिये विषय चारित्र है।
अपने ही सूत्रोंमें योजना की। इससे समुच्चय रूपसे ___ भगवान महावीरने अपनी मीमांसामें ज्ञेयतत्व और ऐसा कहना चाहिये कि वा० उमास्वातिन अपने सूत्र चारित्र को समान स्थान दिया है, इससे उनकी तत्व- के विषयस्वरूप ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीनों मीमांसा एक ओर जीव, अजीव के निरुपणद्वारा मीमांसाओं को जैन दृष्टिके अनुसार लिया है। जगत का स्वरूप वर्णन करती है और दूसरी तरफ विषयका विभाग - पसंद किये हुए विषयको आम्रव, संवर आदि तत्वों का वर्णन करके चारित्र का वा० उमास्वाति ने अपनी दशाध्यायीमें इस प्रकार से स्वरूप दर्शाती है । इनकी तत्वमीमांसा का अर्थ है विभाजित किया है कि, पहले अध्यायमें ज्ञानकी, दूसरे ज्ञेय और चारित्र का समानरूप से विचार । इस मी- से पाँचवें तक चार अध्यायोंमें ज्ञेय की और छठे से मांसा में भगवान ने नव तत्वों को रख कर इन तत्वों दसवें तक पाँच अध्यायोंमें चारित्रकी मीमांसा की है। पर की अचल श्रद्धा को जैनत्व की प्राथमिक शर्त के उक्त तीनों मीमांसाओंकी क्रमशः मुख्य सार बातें देकर रूप में वर्णन किया है । त्यागी या प्रहस्थ कोई भी म- प्रत्येक की दूसरे दर्शनोंके साथ यहाँ संक्षेपमें तुलना हावीर के मार्ग का अनुयायी तभी माना जा सकता है की जाती है।