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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ११, १२ कैसे बच सकेंगे?) इससे बैरिष्टर साहबकी स्पष्ट धमकी पाई जाती है
सब बातोंको सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं । और व साफ तौर पर सम्पादकको यह कहना चाहत
परन्तु फिर भी बैरिष्टर साहब उक्त नोटकी आलोचना हैं कि वह उनके राजबस-क्रोधसे नहीं बच स
___“सम्पादकजीने मुँह खोलना, जबान हिलाना, केगा । साथ ही, यह भी मालम होता है कि आपके
बोलना तक बन्द कर दिया । लेखकने कौन ऐबकी यात क्रोधका एक कारण आपका लेख न छापना भी है।
लिखी थी कि जिस पर भी आपसे न रहा गया और परन्तु बेरिष्टर साहब यह लिखते हुए इस बातको भूल
फुटनोट जोड़ ही दिया। ... क्या हर शख्स अपनी गये कि जुगलकिशोरके वस भले ही गेरुआ न हों
राय भी अब जाहिर न कर सकेगा?" परन्तु वह स्वतन्त्र है-किसीके आश्रित नहीं, अपनी इच्छासे निःस्वार्थ सेवा करने वाला है । और साथ ही
पाठकगण, देखा कितनी बढ़िया समालोचना है !
सम्पादकने तो लेखको छापदनेके कारण लेखकका मुँह यह भी आपको स्मरण नहीं रहा कि जिस संस्थाका
खोलना आदि कुछ भी बन्द नहीं किया परन्तु बैरिष्टर
र 'अनेकान्त' पत्र है उसके आप इस समय कोई सभा
साहब तो सम्पादकीय नोटोंका विरोध करके सम्पापति भी नहीं हैं जो उस नातेसे अपनी किमी श्राज्ञा
दकको मुँह खोलने और अपनी राय जाहिर करने को बलात् मनवा सकते अथवा श्राज्ञोल्लंघनके अपराध
से रोकना चाहते हैं और फिर खुद ही यह प्रश्न करने में सम्पादक पर कोई राज ब ढा सकते । सच है क्रोध
बैठते हैं कि-"क्या हर शख्म अपनी राय भी अब के प्रावेशमें बुद्धि ठिकाने नहीं रहती और हेयादेयका
जाहिर न कर सकेगा ? इमसे अधिक आश्चर्य की बात विचार सब नष्ट हो जाता है, वही हालत बैरिष्टर साहब
और क्या हो सकती है ? आपको कोपावेशमें यह भी की हुई जान पड़ती है। खारवेलके शिलालेखमें आए हुए मूर्तिके उल्लेख
सझ नहीं पड़ा कि 'हर शख्स'में सम्पादक भी तो शाआदिको ले कर बा० छोटेलाल जीके लेख में यह बात
मिल हैं फिर उसके राय जाहिर करने के अधिकार पर
आपत्ति क्यों ? कही गई थी कि-"तब एक हद तक इसमें संदेह नहीं रहता कि मूर्तियों द्वारा मूर्तिमानकी उपासना-पूजाका
इसी सम्बन्धमें श्राप लिखते हैं कि " बाबू छोटेभाविष्कार करने वाले जैनी ही हैं।" जिस पर सम्पा
लालजीके शब्द ता निहायत गंभीर है।" बेशक गंभीर दकने यह नोट दिया था कि-"यह विषय अभी बहुत
है। परन्तु नोट भी उन पर कुछ कम मंभीर नहीं है । कुछ विवादग्रस्त है और इस लिये इस पर अधिक स्पष्ट नाटोको मान रहे हैं उनके प्रयोग-रहस्यको आप
। बाकी उस गंभीरताका आधार आप जिन “एक हद रूपमें लिखे जानेकी जरूरत है।" और इसके द्वारा स्वतः नहीं समझ सकते-उसे सम्पादक और लेखक लेखक तथा उस विचारके दूसरे विद्वानोंको यह प्रेरणा महाशय ही जानते हैं। हाँ, इतना आपको जरूर बतला की गई थी कि वे भविष्य में किसी स्वतंत्र लेखद्वारा इस देना होगा कि यदि उक्त शब्द वाक्यके साथमें न होते विषय पर अधिक प्रकाश डालनेकी कृपा करें । इम तो फिर नोटका रूप भी कुछ दूसरा ही होता और वह प्रेरणामें कौनसी आपत्तिकी बात है ? लेखककी इसमें शायद आपको कहीं अधिक अत्रिय जान पड़ता। कौनसी तौहीन की गई है अथवा कौनसी बातको “ऐब इसी फटनोटकी चर्चा करते हुए बैरिएर साहब की बात" लिखा गया है ? और किसीको अपनी राय पसजाहिर करनेके लिये इसमें कहाँ रोका गया है ? इन .“क्या संपादकजीने किसी.लेख या पुस्तकमें जो
* प्रश्नांक ? से पहले यह पाठ छूट गया जान पड़ता है। हिन्दू ने छपवाई हो फटनोट जैसा उन्होंने खुद जोड़ने यदि प्रश्नांक ही गलत हो तब भी मापके लिखनेका नतीजा वही का तरीका इखत्यार किया है, कहीं पढ़ा है " निकलता है जो बफटमें दिया गया है।
इस प्रश्न परसे बैरिष्टरसाहबका हिन्दीपत्र-संसार