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भनेकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२
'अनेकान्त' का वार्षिक हिसाब और घाटा
इस संयुक्त किरणके साथ 'अनेकान्त' पत्रका प्र- चार किया जाय-प्रचारकार्यमें बड़ी शक्ति है, वह बम वर्ष पूरा होता है । अतः पाठकों तथा समाजके लोकचिको बदल देता है । परन्तु वह प्रचारकार्य सामने इसका वर्ष भरका हिसाय भी रख देना उचित तभी बन सकता है जबकि कुछ उदार महानुभाव ऐसे जान पड़ता है, जिससे मबको पत्रकी आर्थिक स्थिति कार्यकी पीठ पर हों और उसकी सहायतामें उनका का ठीक परिचय मिल सके और वे इस विषयमें अ. खास हाथ हो । जितनं हिन्दी पत्र अाज उन्नत दीख पने कर्तव्यका यथेष्ट पालन कर सकें।
वैशाख-ज्येष्ठ मासकी संयुक्त किरणमें (पृ०४१७ है कि उन्होंने शुरु शुरू में खूब घाटे उठाएँ है परन्तु उन्हें पर) वीर संवक-संघ और समन्तभद्राश्रमका हिसाब उन घाटोको पूरा करने वाले मिलते रहे हैं और इस देते हुए, 'भनेकान्त' का हिसाब ३१ मार्च मन् १५३० लिये वं उत्साह के साथ वराबर भागे बढ़ते रहे हैं । 3. तकका दिया जा चुका है। ३१ मार्च तक 'अनेकान्त' दाहरण के लिये 'त्यागभूमि' को लीजिये, जिसे शुरूशुरू खातेमें १०५१।।- की आमदनी हुई थी और खर्च में पाठ पाठ नौ नौ हजार के करीब तक प्रतिवर्ष घाटा १३६८) रुका हुआ था, जिसकी तफमोल उक्त किरण उठाना पड़ा है परन्तु उसके मिर पर बिड़लाजी तथा में दी हुई है। उसके बाद इस खातेमें ता०१० नवम्बर जमनालालजी बजाज जैसे समयानुकूल उत्तम दानी मसन् १९३० तक कुल ५८६॥) की आमदनी हुई और हानभावोंका हाथ है जो उसके घाटेको पग करते रहते सार्च ९९०७तो हो चुका, जिसकी तफसील आग हैं, इस लिये वह बगबर उन्नति करती जाती है तथा दर्ज है तथा २४२) २० के करीब इस किरणकी छपाई अपने साहित्यक प्रचारद्वारा लोकचिको बदल कर बंधाई, पोष्टेज और कुछ कागज वगैरहकी बाबत स्त्रचे नित्य नये पाठक उत्पन्न करती रहती है और वह दिन करना बाकी है अर्थान बाद का खर्च १२३२३jा के अब दूर नहीं है जब उसे घाटेका शब्द भी सुनाई नहीं करीब समझना चाहिये । इस तरह वर्ष भरकी कुल पड़ेगा किन्तु लाभ ही लाभ रहेगा । 'अनकान्त' को भामदनी १६७८-)।हुई और कुल खर्च २६०० अभी तक ऐसे किसी सहायक महानुभावका सहयोग करीबहुभा । इससे अनेकान्त'को इस वर्ष ९२२०) प्राप्त नहीं है । यदि किमी उदार महानुभावने इस की
करीब घाटा रहा । घाटेका बजट एक हजार रुपय उपयोगिता और महत्ताको समझकर किसी समय इस · का रक्खा गयाथा मनः यह पाटाबजटके भीतर ही को अपनाया और इसके सिर पर अपना हाथ रक्खा रहा, इतनी तो सन्तोषकी बात है। और यह भी ठीक तो यह भी व्यवस्थित रूपसे अपना प्रचारकार्य कर है कि समाज प्रायः सभी पत्र घाटेसे चल रद सकेगा और अपनेकी अधिकाधिक लोकप्रिय बनाता और उनकी स्थिति मादिकी दृष्टिस यह घाटा कुछ हुआ घाटे महाके लिये मुक्त हो जायगा । जेनसमाज अधिक नहीं है। ऐसे पत्रों को सा शुरु शुरूमें और भी का यदि अच्छा होना है तो पहल किसी-न-किसी :अधिक घाटा उठाना पड़ता है। क्योंकि समाजमें ऐसे हानभावके हदय में इसकी ठोस सहायताका भाव उदित ऊँचे, गंभीर तथा ठोस साहित्यको पढ़ने वालोंकी संख्या होगा, ऐमा मेगचंतःकरण कहता है। देखता हूँ इस बहुत कम होती है-जैनसमाजमें वो बह और भी पाटेको पूरा करने के लिये कौन कौन उदार महाशव कमरे।ऐमे पाठक तो बास्तबमें पैदा किये जाते अपना हाथ बढ़ाते हैं और मुझे उत्साहित करते हैं। और वे सभी पैदा हो सकते हैं जबकि इस प्रकारके यदि ९सजन सौ सौ रुपये भी देखें तो यह पाटासहज साहित्यका जनतामें अनेक मुकियोंसे अधिकाधिक प्र- हमें पूरा हो सकता है।