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अनेकान्त
बू नहीं आती और जैनत्व की भी कुछ गंध नहीं आती । और इस लिये इन सब बातोंका किसी-न-किसी रूप में इजहार करते हुए फिर आप यहाँ तक लिखते हैं
"वह पत्र क्या काम कर सकेगा जो सच्चे जवाहरात में ही ऐब निकाल निकाल कर दूसरोंको अपने सत्यवक्तापने की घोषणा दे ! और जो चाँद के ऊपर धूल फेंकने को ही अपना कर्तव्य समझ बैठे।"
"यह याद रहे कि यह पत्र मात्र ऐतिहासिक या पुरातत्वका पत्र नहीं है। जैनियोंने जो हजारों रुपये का चन्दा किया है, वह इस लिये नहीं किया है, कि 'अनेकान्त' इच्छानुसार अन्टसन्ट लिखता रहे।"
"अगर 'अनेकान्त' इतिहास में जैनत्वकी सुगंध पैदा नहीं कर सकता है तो उसकी कोई जरूरत नहीं है ।"
और इस तरह 'अनेकान्त' की तरफसे लोगों का भड़काने, उन्हें प्रकारान्तरसे उसकी सहायता न करने के लिये प्रेरित करने, और उसका जीवन तक समाप्त कर देनेकी आपने चेष्टा की है।
[वर्ष १, किरण ११, १२
जो सुगंध चतुर्दिक फैल रही है वह आपको महसूस नहीं होती और आप उसमें जैन त्वकी कोई गंध नहीं पारहे हैं'
उपसंहार
ये हैं सब आपकी समालोचनाके खास नमूने ! इसे कहते हैं गुणको छोड़ कर अवगुण ग्रहण करना, ias saण भी कैसा ? विभंगावधि वाले जीव की बुद्धि में स्थित जैसा, जो माता के चमचे दूध पि लाने को भी मुँह फाड़ना समझता है ! और इसे कहते हैं एक सलूके लिये भैंसेका वध करनेके लिये उतारू हो जाना ! जिन संख्याबन्ध जैन श्रजैन विद्वानों को 'अनेकान्त' में सब ओरसे गुणों का दर्शन होता है, इतिहास, साहित्य एवं तत्त्वज्ञानका महत्व दिखलाई पड़ता है, जो सच्चे जैनत्व की सुगंधसे इसे व्याप्त पात हैं और जो इसकी प्रशंसा में मुक्तकण्ठ बने हुए हैं, तथा जिनके हृदयोद्गार 'अनेकान्त' की प्रत्येक किरण में निकलते रहे है, वे शायद बेरिएर साहब से कह बैठें - 'महाशय जी ! क्रोध तथा पक्षपातके श्रावेशवश आपकी दृष्टि में विकार आ गया है, इसीसे आपको 'अनेकान्त' में कुछ गुणकी बात दिखलाई नहीं पड़ती अथवा जो कुछ खिलाई दे रहा है वह सब अन्यथाही दिखलाई दे रहा है। और इसी तरह नासिका विकृत हो कर उसकी प्राणशक्ति भीनष्टप्राय होगई है, इसी से इसकी
हाँ, साम्प्रदायिकताको पुष्ट करना ही यदि सहधर्मी वात्सल्यका लक्षण हो तो उसकी ब जरूर 'अनेकान्त' में नहीं मिलेगी - साम्प्रदायिकता अनेकान्त द्वारा पुष्ट नहीं होती किन्तु एकान्त द्वारा पुत्र होती है । 'अनेकान्त' को साम्प्रदायिकता के पंकस लिए रखने की पूरी कोशिश की जाती है, उसका उदय ही इस बात को लेकर हुआ है कि उसमें किसी सम्प्रदायविशेषकं अनुचित पक्षपानको स्थान नहीं दिया जायगा । 'अनेकान्त' की
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समान हैं, दोनों ही इसके पाठक तथा ग्राहक हैं और दोनों ही सम्प्रदायों के महानुभाव उस वीर सेवक संघ नामक संस्थाके सदस्य हैं जिसके द्वारा समन्तभद्राश्रमकी स्थापना हुई और जिसका यह मुख पत्र है । श्वेताम्बर सदस्यों में पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदासजी और मुनि कल्याणविजयजी जैसे प्रौढ विद्वानोंके नाम खास तौरमं उल्लेखनीय हैं, जो इस संस्थाकी उदारनीति तथा कार्यपद्धतिका पसन्द करके ही सदस्य हुए हैं। जिस समय यह संस्था क़ायम की गई थी उसी समय यह निश्चित कर लिया गया था कि इसे स्वतन्त्र रक्खा जायगा, इससे यह पूर्व स्थापित किसी सभा सोसाइटीकी अ धीनता में नहीं खोली गई। दिगम्बर जैन परिषद्कं मंत्री
ब
ब रतनलालजी और खुद बैरियर साहबने बहुतंग चाहा और कोशिश की कि यह संस्था परिषद् के अंडर में
- उसकी शाखारूपसं - खोली जाय; परन्तु उसके द्वारा संस्थाके क्षेत्रको सीमित और उसकी नीतिको कुछ संकुचित करना उचित नहीं समझा गया और इसलिए उनका वह प्रस्ताव मुख्य संस्थापकों द्वारा अम्वीकृत किया गया । ऐसी हालत में भले ही यह संस्था समाज के सहयोग के अभाव में टूट जाय और भले ही आगे चल कर बैरिष्टर साहब जैसों की कृपा दृष्टि से इस पत्रका जीवन संकट में पड़ जाय या यह बन्द हो जाय, परन्तु 'जब तक 'अनेकान्त' जारी है और मैं उसका संपादक