Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 647
________________ ६६२. अनेकान्त मर्यादा से बाहर हो गये हैं और आपने सम्पादक के विषय में एक विलक्षण श्रारोप ( इल्ज़ाम ) की सृष्टि कर डाली है, जिसका खुलासा इस प्रकार है: - 'सम्पादक श्वेताम्बरीमत को ही मूलधर्म मानते होंगे; यदि ऐसा न होता तो एक तो 'मूल' शब्द पर फुनोट दिया ही न जाता - उसके देनेकी कोई जरूरतही नहीं थी, दूसरे श्वेताम्बरों के मूलत्व (प्राचीनत्व) के विरोध में जो लेख उनके पास भेजागया था उसको 'अनेकान्त' में जरूर छाप देते, न छापने की कोई वजह नहीं थी ।' [वर्ष १, किरण ११, १२ बल्कि इस लिये नहीं छापा गया है कि वह गौरव हीन समझा गया, उसका युक्तिवाद प्रायः लचर और पोच पाया गया और इससे भी अधिक त्रुटि उसमें यह देखी गई कि वह शिष्टाचार से गिरा हुआ है, अपने एक भ्रातृवर्गको घृणा की दृष्टि से ही नहीं देखता किंतु उस के पूज्य पुरुषोंके प्रति ओछे एवं तिरस्कार के शब्दोंका प्रयोग करता है और गंभीर विचारणा से एकदम रहित है। कई सज्जनोंका उसे पढ़ कर सुनाया गया तथा पढ़नेको दियागया परन्तु किसीने भी उसे 'अनेकान्त' के लिये पसन्द नहीं किया । 'अनेकान्त' जिस उदारनीति, साम्प्रदायिक- पक्षपात रहितता, अनेकान्तात्मक विचारपद्धति और भाषाके शिष्ट, सौम्य तथा गंभीर होनेके अभिवचनको लेकर अवतरित हुआ है उसके वह अनुकूल ही नहीं पाया गया, और इसलिये नहींछापा गया । इस आरोप और उसके युक्तिवाद के सम्बंध में मैं यहाँ पर सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि वह बिलकुल कल्पित और बेबुनियाद ( निर्मूल ) है । नोट लेखकी जिस स्थिति में दिया गया है और उसके देनेका जो कारण है उसका स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है और उस परसे पाठक उसकी जरूरत को स्वतः महसूस कर सकते हैं। हाँ, यदि सम्पादकमें साप्रदायिक कट्टरता होती तो जरूरत होने पर भी वह उसे न देता, शायद इसी दृष्टिसे बैरिष्टर साहबने "क्या जरूरत थी” इन शब्दों को लिखा हो । दूसरे यदि सम्पादककी ऐसी एकान्त मान्यता होती, तो फिर 'मूल' शब्द मर्यादा-विषयक नोटसे क्या नतीजा था ? तब तो दिगम्बरमतके मूल धर्म होने पर ही आपत्ति की जाती जैसा कि अन्य नोटोंमें भी किसी किसी विषय पर स्पष्ट आपत्ति की गई है। साथ ही, लेखके उस अंश पर भी में पति की जाती जहाँ (पृ०२८६) खारवेल के शिलालेख उल्लेखित प्रतिमाको “अवश्य दिगम्बर थी" ऐसा लिखा गया है; क्योंकि शिलालेख में उसके साथ 'दिगम्बर' शब्दका कोई प्रयोग नहीं है। इसके सिवाय, बाबू पूर चंदजी नाहरका वह लेख भी 'अनेकान्त' में छापा जाता जो श्वेताम्बर मतकी प्राचीनता सिद्ध करनेके लिये प्रकट हुआ है। अतः आपकी इस युक्ति में कुछ भी दम मालूम नहीं होता । रही लेख के न छापनेकी बात, वह जरुर नहीं छापा गया है । परन्तु उसके न छापनेका कारण यह नहीं है कि उसमें श्वेताम्बर मतकी अपेक्षा दिगम्बर मतकी प्राचीनता सिद्ध करनेका यत्न किया गया है यहाँ पर उस लेख के युक्तिवाद पर, विचारका कोई अवसर नहीं है-उसके लिये तो जुदा ही स्थान और काफी समय होना चाहिये - सिर्फ दो नमूने लेखका कुछ आभास करानेके लिये नीचे दिये जाते हैं: -- १ " गौतम और केसीके वार्तालापका विषय 'चोर की दाढ़ीमें तिनका' के समान है । दिगम्बरियोंके यहाँ ऐसा कोई वार्तालाप नहीं दर्ज है । इससे साफ जाहिर है कि दिगम्बरियोंको अपने मतमें कमजोरी नहीं मा लूम हुई और श्वेताम्बरियोंको हुई ।” इत्यादि । २ " श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति बिलकुल कुदरती तौर से समझमें श्रा जाती है। सख्त क़हत के जमाने में जब जैनियोंके यहाँ से पेट पालन न हो सका तो अजैनियोंसे भिक्षा लेनी पड़ी और इस वजह से वस्त्र धारण करने पड़े; क्योंकि उनके यहाँ दिगम्बरी साधुओं की मान्यता न थी । इसी कारण से स्त्रीमुक्ति और शूद्रमुक्तिका सिद्धान्त भी आसानीसे समझमें आ जाता है। इन बातोंमें श्वेताम्बरी हिन्दुओंसे भी आगे बढ़ गए हैं। हिन्दू तो शूद्रोंको वेद भी नहीं पढ़ने देते हैं । मुक्ति कैसी ? इस लिये हिन्दू स्त्रियों और शूद्रोंको मुक्तिका मुज वह सुनानेका यही भाव हो सकता था कि इस बहानेसे भक्तोंकी संख्या बढ़ाई जावे, क्योंकि भक्तोंकी *यह लेख 'बीर के उसी महमें और जैनमित्र के ४-६-३० में है ।

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