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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ]
हूँ तब तक मैं अपनी शक्ति भर उसे उसके आदर्श से नहीं गिरने दूँगा और न साम्प्रदायिक कट्टरता काही उसमें प्रवेश होने दूँगा । मैं इस साम्प्रदायिक कट्टरताको जैनधर्म के विकास और मानवसमाज के उत्थानके लिये बहुत ही घातक समझता हूँ । अस्तु ।
एक विलक्षण भारोप
बैरिष्टर साहबने मुझसे इस बातका खुलासा माँगा है कि मैं दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों सम्प्रदायों में से किसको प्राचीन, असली और मूल समझता हूँ । अतः इस सम्बंध में भी दो शब्द लिख देना उचित जान पड़ता है।
जहाँ तक मैंने जैनशास्त्रोंका अध्ययन किया है मुझे यह मालूम हुआ है कि भगवान् महावीररूपी हिमाचल से धर्मकी जो गंगधारा बही है वह आगे चल कर बीच में एक चट्टान के आ जानेसे दो धाराओं में विभाजित हो गई है - एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर । अब इनमें किसको मूल कहा जाय ? या तो दोनों ही मूल हैं और या दोनों ही मूल नहीं हैं। चूँकि मूल धारा ही दो भागों में विभाजित हो गई है और दोनों उसके अंश हैं इसलिये दोनों ही मूल हैं और परस्पर की अपेक्षा से चूँकि एक धारा दूसरीमेंसे नहीं निकली इस लिये दोनों में से कोई भी मूल नहीं है। हाँ, दिगम्बर धाराको अपनी बीसपंथ, तेरहपंथ, तार
पंथ अथवा मूलसंघ, काष्ठासंघ, द्राविडसंघ आदि उत्तर धाराओं एवं शाखाओंकी अपेक्षासे मूल कहा जा सकता है, और श्वेताम्बरधारा को अपनी स्थानकवासी, तेरहपंथ और अनेक गच्छादिके भेदवाली उत्तरधाराओं एवं शाखाओं की अपेक्षासे मूल कहा जा सकता है । इसी तरह प्राचीनता और अप्राचीनताका हाल है। मूल धारा की प्राचीनताकी दृष्टिसे तथा अपनी उत्तरकालीन शाखाओंकी दृष्टिसे दोनों प्राचीन हैं और अपनी उत्पत्ति तथा नामकरण-समयकी अपेक्षासे दोनों अर्वाचीन हैं। रही असली और बेअसलीकी बात, असली मूल धाराके अधिकांश जलकी अपेक्षा दोनों असली हैं, और चूंकि दोनोंमें बादको इधर उधर से अनेक नदी-नाले शामिल हो गये हैं और उन्होंने उनके मूल जलको विकृत कर दिया है, इस लिये दोनों ही अपने वर्तमान रूपमें असली नहीं हैं। इस प्रकार बने
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कान्तदृष्टि से देखने पर दोनों सम्प्रदायोंकी मूलता - प्रा. चीनता च्यादिका रहस्य भले प्रकार समझमें या सकता है। बाक़ी जिस सम्प्रदायको यह दावा हो कि वही एक अविकल मूल धारा है जो अब तक सीधी चली आई है और दूसरा संप्रदाय उसमेंसे एक नाले के तौर पर या ऐसे निकल गया है जैसे वट वृक्षमें से जटाएँ निकलती हैं, तो उसे बहुत प्राचीन साहित्य पर से यह स्पष्टरूपमें दिखलाना होगा कि उसमें कहाँ पर उसके वर्तमान नामादिकका उल्लेख है। अर्थात् दिगम्बर श्वेताम्ब गेंकी और श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति विक्रमकी दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में बतलाते हैं, तब कमसे कम विक्रमकी पहली शताब्दी से पूर्वके रचे हुए ग्रंथादिक में यह स्पष्ट दिखलाना होगा कि उन में 'दिगम्बरमत-धर्म' या 'श्वेताम्बर मत-धर्म' ऐसा कुछ उल्लेख है और साथमें उसकी वे विशेषताएँ भी दी हुई जो उसे दूसरे सम्प्रदायसे भिन्न करती हैं । दूसरे शब्दों पर से अनुमानादिक लगा कर बतलाने की रत नहीं। जहाँ तक मैंने प्राचीन साहित्यका अध्ययन क्रिया है मुझे ऐसा कोई उल्लेख अभी तक नहीं मिला और इसलिये उपलब्ध साहित्य परसे मैं यही समझता हूँ कि मूल जैनधर्मकी धारा भागे चल कर दो भागों में विभाजित हो गई है- एक दिगम्बरमत और दूसरा श्वेताम्बरमत, जैसा कि ऊपर के कथनसे प्रकट है।
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आशा है इस लेख परसे वैरिष्टर साहब और दूसरे सज्जन भी समाधानको प्राप्त होंगे। अन्त में बैरि ष्टर साहब से निवेदन है कि वे भविष्यमें जो कुछ लिखें उसे बहुत सोच-समझ कर अच्छे जचे तुले शिष्ट, शान्त तथा गंभीर शब्दों में लिखें, इसीमें उनका गौरव है; यों ही किसी उत्तेजना या भावेशके वश होकर जैसे तैसे कोई बात सुपुर्द क़लम न करें और इस तरह व्यर्थ की अप्रिय चर्चाको अवसर न देवें। बाकी कर्तव्यानरोधसे लिखे हुए मेरे इस लेख के किसी शब्द परसे यदि उन्हें कुछ चोट पहुँचे तो उसके लिये मैं क्षमा चाहता हूँ। उन्हें खुदको ही इसके लिये जिम्मेदार समझ कर शान्ति धारण करनी चाहिये ।
- सम्पादक 'अनेकान्त'