Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 644
________________ भारिवन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण आरोप ६५९ विषयक भारी अज्ञान पाया जाता है क्योंकि इससे वस्तु होता-अब भी इस विषयमें 'अनेकान्त' की जो मालूम होता है कि एक तो आप यह समझ रहे हैं कि विशेषता है वह उसके नामको शोभा देने वाली है। सम्पादक 'अनेकान्त' ने ही लेखों पर फुटनोटोंके जो• क्या महज दूसरोंका अनुकरण करने में ही कोई बहाइनका यह नया तरीका ईजाद और इख्तियार किया दुर्ग है और अपनी तरफसे किसी अच्छी नई बातके है, इससे पहले उसका कहीं कोई अस्तित्व नहीं था; ईजाद करनेमें कुछ भी गुण नहीं है ? यदि ऐसा नहीं दूसरे यह कि हिन्दुओंके द्वारा प्रकाशित लेखादिकोमें तो फिर उक्त प्रकारके प्रश्नकी जरूरन ही क्यों पैदा इस प्रकार के नोट लगानके तरीकेका एकदम अभाव हुई ? नोटपद्धतिकी उपयोगिता-अनुपयोगिताके प्रश्न है । परन्तु ऐमा नहीं है, हिन्दी पत्रोंमें फुटनोटका यह पर विचार करना था, जिमका लेखमें कहीं भी कुछ तरीका कमोबेश रूपमें वर्षों से जारी है । जैनहितैषी में विचार नहीं है । मात्र यह कह देना कि नोट तो मकभी फुटनोट लगते थे, जिसे श्राप एक बार हिन्दुस्तान तबके परागंदहदिल मौलवी साहबकी कमचियाँ हैं, पत्रोम उत्तम तथा यागेपके फस्टे क्लास जनरल्म विलायतम 'ऐम लम्बाका सम्पादक लेतही नहीं जिन के मुकाबलेका पर्चा लिख चुके हैं, और वे पं०नाथगम के नीचे फुटनोट लगाये वरौर उनका काम न चले' जी प्रेमीके सम्पादनकाल में भी लगते रहे हैं । यदि अथवा अमुक 'फुटनोट भी कम वाहियात नहीं' यह बैरिष्टर साहब उक्त प्रश्नसे पहले 'त्यागभूमि' आदि मब क्या नाटपद्धतिकी उपयोगिता-अनुपयोगिताका वर्तमानके कुछ प्रसिद्ध हिन्दू पत्रोंकी फाइलें ही उठाकर कोई विचार है ? कदापि नहीं । फिर क्या अनुपयोगी देख लेते तो आपको गर्वकं साथ ऐमा प्रश्न पूछ कर सिद्ध किये विना ही श्राप संपादकसे ऐसी भाशा व्यर्थ ही अपनी अज्ञताके प्रकाशद्वारा हाम्यास्पद रचना उचित समझते हैं कि वह अपनी इस नोटपबननकी नौबत न आती । अस्तु; पाठकोंके संतोपके द्धतिको छोड़ देव ? संपादकन अपनी इस-नोट-नीति लिये तीसरे वर्षकी 'त्यागमूमि' के अंक नं०४ परमं की उपयोगिता और आवश्यकताका कितना ही स्पष्टीसंपादकीय फुटनोटका एक नमूना नीचे दिया जाता है. करण रस लेग्वमें कर दिया है, जो 'एक भाप' इस अंकमें और भी कई लखों पर नोट हैं, जो सब नाम ज्येष्ठ मालकी अनेकान्न किरण पृ० ३१९ पर 'अनकान्त' के नोटोंकी रीतिनीतिसे तुलना किये जा प्रकाशित हुआ है । पाठक वहाँ में उसे जान सकते हैं। सकते हैं: उसके विरोधगं यदि किसीको कुछ युक्तिपरस्मर "यह लेखककी भूल है । अत्याचारी राजाको, लिम्बना हो तो वे जरूर लिखें, उस पर विचार किया सपरिवार तक, नष्ट कर डालनका स्पष्ट आदेश मनु- जायगा । अस्तु । स्मति आदिमें है। -संपा०" ०४२९ अब उय नोटकी बातको भी लीजिय, जिम पर इससं पाठक समझ सकते हैं कि बैरिष्टर साहबके लेबमें सबसे अधिक वावेला मचाया गया है और उक्त प्रश्नका क्या मूल्य है, उनकी लखनी कितनी अ. लोगोंको 'अनकान्न' पत्र तथा उमकं 'सम्पादक' के सावधान है और उनकी यह अमावधानता भी उनकी विरुद्ध भड़कानका जघन्य प्रयत्न किया गया है। इस कितनी परागंदहदिली-अथिचित्तता-का सा- के लिये सबसे पहले हम बाब छोटेलाल जीके लेखक बित करती है, जिसका क्रोधके आवेशमें हो जाना प्रारंभिक अंशको ध्यानमें लेना होगा, और वह इस बहुत कुछ स्वाभाविक है । साथ ही, उन्हें यह बतलान प्रकार हैकी भी जरूरत नहीं रहती कि इस प्रकारके फटनोटों "यह बात सत्य है कि जिस जातिका इतिहास नहीं का यह कोई नया तरीका इख्तियार नहीं किया गया वह जाति प्रायः नहीं-के-तुल्य समझी जाती है, कुछ है, जैसा कि बैरिष्टर साहब समझते हैं । और यदि समय पूर्व जैनियोंकी गणना हिन्दुओं में होती थी, किंतु किया भी जाता तो वह 'अनेकान्त' के लिये गौरवकी जबसे जैनपुरातत्वका विकास हुआ तबसे संसार हमें

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