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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण भारोप को एक प्रकारका जातिज्म (.jatism ) वा रक्खा लेख पर जो नोट लगाये गये हैं उनकी संख्या पाँच है। ये लोग हमेशा दूसरों पर जो इनसे मतभेद रखते नहीं है औरन बाब कामताप्रसादजीके लेख पर लगाये हैं, धर्मविरुद्ध हुल्लड मचा कर आक्षेप किया करते हैं। गये नोटोंकी संख्या ही पाँच है, जिसे आप 'भी' मुझे खुशी है कि बाबू जुगलकिशोरजीने मुँह तोड़ ज- शब्दके प्रयोगद्वारा सूचित करते हैं बल्कि दोनों लेखों वाब लिखकर दर्शा दिया है कि वाकई धर्मविरुद्ध विचार पर लगे हुए नोटोंकी संख्या आठ पाठ है। फिर भी किनक हैं।"
बैरिस्टर साहबके हृदयमें 'पाँच' की कल्पना उत्पन्न __३ " 'जैनहितैषी' के बारेमें मेरी गय यह है कि हुई-वह भी पाँच व्रतों,पाँच चारित्रों, पाँच समितियों हिन्दुस्तान भग्में शायद ही कोई दूसग पर्चा (पत्र) अथवा पाँच इंद्रियोंकी नहीं किन्तु पाँच महापापोंकी; इस कदर उम्दगी ( उत्तमता ) और काबलियत ( यो- और इस लिये आपको पूर्ण संयत भाषामें लिखे हुए ग्यता ) का निकलता हो। मेरे खयालमें तो यारोपके वे नोट पाठकी जगह पाँच-नहीं, नहीं पाँच महाफस्ट क्लास जर्नल्स (gournals ) के मुकाबलेका यह पाप-दीखने लगे! और उसीके अनुसार मापन उन पर्चा रहा है।"
की संख्या पाँच लिख मारी !! लिखते समय इस बात ___ इनसे प्रकट है कि आपने सम्पादककी इन कृति- की सावधानी रखनकी आपने कोई जरूरत ही नहीं योंको वास्तव में कितना अधिक काबिल तारीफ पाया समझी कि उनकी एक बार गणना तो कर ली जाय हैं। और मेरी भावना' को तो आपने इतना अधिक कि वे पाँच ही हैं या कमती बढ़ती ! सो ठीक है क्रोध काबिल तारीफ़ पाया और पसंद किया है कि उसे अ- के आवेशमें प्रायः पापकी ही समती है और प्रमत्तपनी तीन पुस्तकोंमें लगाया, अंग्रेजीमें उसका अनुवाद दशा होनेसे स्मृति अपना ठीक काम नहीं करती, इसीकिया और शायद जर्मनी में खुद गाकर उसे फोनोग्राफ से बैरिष्टर साहबको पापोंकी ही संख्याका स्मरण रहा के रेकार्ड में भरवाया । इतने पर भी आप लिखत हैं जान पड़ता है। खेद है अपनी ऐसी सावधान लेखनी कि "मण्डनका अभी कोई काबिल तारीफ काम आप- के भरोसे पर ही श्राप जचे तले नोटों के सम्बंधों का की क़लमका लिखा हुआ मेरे देखने में नहीं पाया।" कहनेका साहस करने बैठे हैं ! इससे पाठक समझ सकते हैं कि यह सब कितना दुः- एक जगह तो बैरिष्टर साहनका कोपावेश धमकी साहस तथा सत्यका अपलाप है, बैरिस्टरसाहब कोपके की हद तक पहुँच गया है। आपका एक लेख 'भनेश्रावेशमें और एक मित्रका अनुचित पक्ष लेनेकी धुनमें कान्त' में नहीं छापा गया था, जिसका कुछ परिचय कितने बदल गये होर श्रापकी स्मृति कहा तक वि. पाठकोंको भागे चलकर कराया जायगा, उसका उस चलित हो गई है ! सच है कोपर्क आवेशमें सत्यका करनेके बाद यह घोषणा करते हुए कि "संपादकजी कुछ भी भान नहीं रहता, यथार्थ निर्णय उससे दूर जा सब ही थोदे बहुत नौकरशाही की भांतिके होते है," पड़ता है और इसीसे क्रोधको अनोंका मूल बतलाया आप लिखते हैं:है। आपकी इस कोपदशा तथा स्मृतिभ्रमका सूचक “मुझे याद है कि एक मरतबा० शीतलप्रसादएक अच्छा नमूना और भी नीचे दिया जाता है- जीने भी, जब वह ऐडीटर 'वीर' के थे, और मैं समा
साहब लिखते हैं-"अब देखें बाब छोटे- पति परिषदका था, मेरे एक लेखको प्रर्थात सभापति लालजीके साथ कैसी गुजरी ? सो उनके लेखके नीचे महाशयकी पाझाको टाल दिया था, यह कह कर कि भी महापापोंकी संख्या पूरी कर दी गई है यानी पाँच वह म. गांधी के सिद्धान्त के विरोध है । मगर जी फटनोट संपादकजीनं लगा ही दिये हैं।" तो अपने गेहना कपड़ों और उपचारित्रकी बदौलत
यह है आपकी शिष्ट, सौम्य तथा गौरव भरी लेख- सभापतिजीके राजबसे बच गये, मगर बाबू जुगलकिनपद्धतिका एक नमूना ! अस्तु; बाब छोटेलालजीके शोरजीक तो वन भी गेला नहीं हैं " (अब बह