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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] जेसलमेरके भं० प्रन्थ-फोट
६.७ विस्तारसे वर्णन होगा।
मराइचकहा ( समरादित्य कथा )' के भावको ले कर साहित्यप्रेमी संस्था अथवा गृहस्थांकी, समन्तभ- ११ संधियों (विभागों) में अपभ्रंश भाषाकी यह कथा द्राश्रम की तरह इस ग्रंथके लिये अच्छा पारितोषिक अाज तक कहीं भी नहीं छपी । प्रन्थकर्तान अपना निश्चित करके अथवा अन्य जो भी उपाय हो सके नाम 'साधारण' लिखा है, परंतु मुझे ना ऐसा माउस जपायस, यह प्रन्थ जहाँ हो वहाँ में इसका पता लम होता है कि, उनका उपनाम 'माधारण' होगा, जैमें लगाना अत्यावश्यक है।
कि सन्मित्र, वीरपुत्र, भिक्षु भादि। उनका मूलनाम ना पूज्य मुनिराजोंको भी यह ग्रन्थ हर एक भण्डार सिद्धसेनसरि था, वह 'कोटिक' गणके 'बापम' में ढूँढना चाहिये, और यदि अधिक भाग न मिले, तो सरिके समुदायमें हुए हैं,ऐसा पालेख करते हैं। उसका जेसलमेरसे उपलब्ध भागको अच्छी तरह शुद्धता- अन्तिम भाग इस प्रकार हैपूर्वक छपवाना आवश्यक है । 'पार्हतमतप्रभाकर' की कह विलासबइ एह सम्माणिय ओरसे प्रकाशित आवृत्ति बहुत अशुद्ध छपी है । यह
नियद्धिहि मं जारिस जाणिय । ग्रंथ कलकत्ता यनिवर्सिटी की जैन. श्वे. न्यायतीर्थकी
एह कह निसुणेविणु सारू परीक्षामें नियत है।
मुन्यविण सयलपमायइं परहरहु ।। कुवलयमाला
असहुहं मणु खंचहु मिणयरु मुख्यतया प्राकृत और अपभ्रंशभाषामें रचित यह ,
अंचहु साहरणु विरमणु परहु । कथा भाषाके इतिहासमे अच्छा प्रकाश डालने वाली
इइ (भ) विलासवइकहाए एगारसमासंधी है । थोड़े ही भण्डारोंमें इस ग्रन्थकी प्रतियाँ उपलब्ध
समत्ता । संमत्ता विलासबह कहा। हैं । यूरोपियन स्कॉलर इसकी बहुत प्रतीक्षा कर रहे
धोत्तर-टिप्पण थे। 'पुरातत्त्व-मंदिर-अहमदाबाद' इस प्रकाशित करने
बौद्धाचार्य 'धर्मपाल' के शिष्य धर्मकीनि ईसाकी का विचार कर रहा है । इसका रचनाकाल १.००
सातवीं शताब्दीके पूर्वाधमें हुए हैं । उनके द्वारा रचित वर्षसे प्राचीन है । अपभ्रंश भाषामें कथाकं विषय
न्यायविन्द पर बौद्ध धर्मोसराचार्य ने.संस्कृतमें का इतना पुराना ग्रंथ मेरे खयाल से अभी तक कहीं
टीकाकरची है, उस टीका पर श्रीमञ्जबादि जैनाचार्यपर उपलब्ध नहीं हुआ है ।
का यह टिप्पण रहस्योपेत है। धर्मोत्तरका समय आज ४-सावग्गधम्म ( श्रावकधर्म-प्राकृतमें )
कल के कई शोधक ईसाकी पाठवीं शताब्दीका पूर्वार्ध ५-कर्मप्रकृतिचर्णि-टिप्पण ( संस्कृतमें ) । और कई ९ वीं शताब्दि का पूर्वार्ध मानते हैं । अन ६-हरिवंश
प्रस्तुत टिप्पणके कर्ता श्रीमल्लवादिका समय कमसे कम ७-बिलासईकहा (विलासवतीकथा-प्राकृतमें) आठवीं या नवमी शताब्दि होना चाहिये । 'नयचा
प्रसिद्ध पाचार्यरत्न श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित 'स- प्रस्तत टीकासहित 'न्यायविन्दु' प्रय हरिताम गमद्वारा * दिगम्बर साहिलपमें इससे प्राचीनई अन्य उपलब्ध हैं।-सम्पादक बनारममें पा है।