Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 633
________________ ६५२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ वैद्य जी का वियोग! मुझे यह प्रकट करते हुए बड़ा ही दुःख होता है थे, कई भाषाएँ जानते थे, विद्वानोंसे मिल कर प्रसन्न कि मेरे मित्र देहलीके सुप्रसिद्ध राजवैध रसायनशास्त्री होते थे, नाना प्रकारकी पुस्तकोंको पढ़ने तथा संग्रह पं० शीवलप्रसादजी आज इस संसारमें नहीं हैं ! गत करनेका आपको शौक था, लेख भी आप कभी कभी ता०५ सितम्बर सन् १९३० को प्रातः काल के समय लिखा करते थे-जिसका कुछ रसास्वादन'अनकान्त' ६५ वर्षकी अवस्थामें आप अपने संपूर्ण कुटम्ब तथा के पाठक भी कर चुके हैं और कविता करने में भी इष्ट मित्रादिकको शोकातुर छोड़ कर स्वर्गलोकको सि- आपकी रुचि थी। कुछ महीनोसे 'जीवन-सुधा' नाम धार गये हैं !! आपके इस वियोगसे, निःसन्देह, जैन- का एक वैद्यविषयक मासिक पत्र भी आपने अपने समाजको ही नहीं किन्तु मानवसमाजको एक बहुत औषधालयसे निकालना प्रारंभ किया था, जो अभी बड़ी हानि पहुँची है और देहलीने अपना एक कुशल चल रहा है। जैनशास्त्रोका आपने बहुत कुछ अध्ययन चिकित्सक तथा सत्परामर्शक खो दिया है ! आपका किया था और उनके आधार पर वर्षों से आप 'अहेअनुभव वैद्यकमें ही नहीं किन्तु यूनानी हिकमतमें भी त्वचनवम्तुकोश' नामका एक कोश तय्यार कर बदा चढ़ा था, अंग्रेजी चिकित्सा-प्रणालीसे भी श्राप रहे थे । वस्तभोके संग्रहकी दृष्टिसं आप उसे परा कर अभिज्ञ थे, साथ ही आपके हाथको यश था, और इम चके थे परंतु फिर आपका विचार हुआ कि प्रत्येक लिये दूर दूरसं भी लोग आपके पास इलाजके लिये , वस्तुका कुछ स्वरूप भी साथ में हो तो यह कांश भाते थे । कई केस आपके द्वाग ऐसे अच्छे किये गये अधिक उपयोगी बन जावे । इससे आप पनः उसको हैं जिनमें डाक्टर लोग ऑपरेशनके लिये प्रस्तुत हो व्याख्यासहित लिख रहे थे कि दुर्दैवसं आपकी बाई गये थे अथवा उन्होंने उसकी अनिवार्य आवश्यकता हथेली में एक फोड़ा निकल आया, जिसने क्रमशः भपतलाई थी परन्तु आपने उन्हें बिना ऑपरेशनकही यंकर रूप धारण किया, करीब साढ़े तीन महीने तक बच्छा कर दिया । आतुरोक प्रति आपका व्यवहार तरह तरह के उपचार होते रहे, बड़े बड़े डाक्टरों तथा बड़ा ही सदय था, प्रकृति उदार थी और आप सदा सिविल सर्जनोके हाथमें उसका कंस रहा परन्तु भावी हँसमुख तथा प्रसन्न चित्त रहते थे। आपका स्वास्थ्य के सामने किसीसे भी कुछ न हो सका, अंतमें बेहोशी इस अवस्थामें भी ईर्षायोग्य जान पड़ता था। के ऑपरंशन द्वारा हाथको काटनकी नौबत आई और आपकी वृत्ति परोपकारमय थी, धर्मार्थ औषधि उसीमें एक समाह बाद आपके प्राणपखेरू उड़ गये !!! वितरण करनेका भी आपके औषधालयमें एक विभाग इस दुःख तथा शोकमें मैं आपके सुयोग्य पत्र वैद्य था। पाप धर्मके कामोंमें बराबर भाग लेते थे और पं० महावीरप्रसादजी त्रिपाठी और दूसरे कुटम्बी जनों समय समय पर धार्मिक संस्थाओंको दान भी देते रहते के प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति और समवेदना थे। पिछले दिनों समन्तभद्राश्रमको भी आपने १०१) प्रकट करता हूँ और भावना करता हूँ कि वैधजीको १० की सहायता अपनी ओरसे और ५०) रु० अपनी परलोकमें शान्तिकी प्राप्ति होवे। पुत्रवधूकी ओरसे प्रदान की थी। पाप पाश्रमके पा- ऑपरेशनको जानेसे पहले वैवजी दो हजार रुपये जीवन सदस्य थे, पाश्रमकी स्थापनामें भापका हाथ अपने उक्त कोशको प्रकाशित करके वितरण करनेके था और इस लिये आपके इस वियोगसे प्राममको भी लिये और पाँचसौ रुपये समाजकी धार्मिक संस्थानों भारी क्षति पहुँची है। को देने के लिये दान कर गये हैं। इसके सिवाय, माप विद्याव्यसनी तथा सुधारमिय -सम्पादक

Loading...

Page Navigation
1 ... 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660