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अनेकान्त
दूर विदेशोंमें उनके सुत जाय रहे हैं, अपनी माताओं का यश फैलाय रहे हैं। जो कुछ उनसे बन सकता है करें न कमती; धन्य धन्य थे कुंख पूत जो ऐसे जनती ।।
(२४) विधामें जिसको सब जगसे मिली बड़ाई, उस अमेरिका में भी उनने ध्वजा उड़ा । कहते हैं सब सुधी भविष्यत धर्म वहाँकाहोगा भव वेदान्त न इसमें कुछ भी शंका ।।
वर्ष १, किरण ११, १२
(२९) है उदारता भी तुम में सब से बढ़ चढ़कर, एक एक लाखों दे देता आगे बढ़कर । रथ-यात्रादि धर्म कामों में पानी जैसाद्रव्य बहात हो, चाहे फिर रहै न सा !!
(३०) भक्ति-भावकी भी तुममें नहिं कमी निहारी, मुझे देखते ही तनुलतिका झुके तुम्हारी ! मेरा अविनय तुम्हें जरा भी सहन न होता, विनय विनय रटते रहते हो जैसे तोता !!
(३१) चाहो तो तुम सब कुछ अच्छा कर सकते हो, मेरे सारे दुःख शीघ्र ही हर सकते हो। किन्तु न मेरा रोग देख औषध करते हो, भूखे को रसकथा सुनाय सुखी करते हो !!
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बुद्धव की वाणी भी अब मुदित हुई है, पालीके लाखों गन्थोंमें उदित हुई है। जिसकी पुत्र पचासकोटि करते हैं पूजा, कहो सुखी है और कौन उसके सम दृजा ?
वह देखा सारे जगमें ईसा की वाणीकैसी विस्तृत ई, स्वर्गसीदी कहलानी । कई शतक भाषाओंमें समुदित हो करके, घर-घर पहुँची कर-करमें वितरित हो करके ।
बस बेटो ! है यही कहानी इस दुखिनी की; पक्की छाती करके, तुम्हें सुना दी जीकी ! पर न खेद करना, विस्मृत हो जाना इसको, सह नहिं सकती है माता पत्रोंके दुखको !!*
इस प्रकार घर-घरमें सुखरवि उदयं हुआ है. किन्तु न मुझ दुर्भागनिका विधि सदय हुआ है ! जिसमें सब ही वृक्ष उहडहे हो जाते हैं, इस वर्षामें आक ढूँठ-से रह जाते हैं !!
(२८) सुख पाना यदि कहीं लिखा होना कपालमें, तो तुम सब क्या कर न डालते अल्प कालमें ! धन-वैभव की हमी न तुममें दिख पड़ती है, संख्या भी कई लाख तुम्हारी सुन पड़ती है।
* यह लेखक महोदय की कई २१ वर्ष पहले की स्वना है, जो जनसमाजको उसके कर्तव्यका बोध कराने के लिये माज भी उतनी ही उपयोगी है क्योंकि गिनवागी मातक रुदन ज्यों का त्यों बना हुमा है और वह जैनियोंकी भाी प्रकण्यता तथा कर्तव्यविमुखताको भक्ति करता है, जिसके फल स्वरूप माज को महत्वपूर्ण अंक समय हो रहे हैं । कोई उनकी खोज तथा उद्धारकी मोर ध्यान तक भी नहीं देता : पोर न साहित्यके प्रचारका ही कोई समुक्ति प्रत्यत्र जारी है। । . -सम्पादक