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भारिवन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६]
शास्त्र मर्यादा
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शास्त्र-मर्यादा
[ लेखक-श्रीमान पं० सुखलालजी ]
स्त्र क्या? जो शिक्षण देअर्थात् किसी सत्य पर अवलम्बित है। इससे समुपय रूपसे विचार विषयका परिचय तथा अनुभव प्र- करने पर यही भले प्रकार फलित होता है कि जो दान करे,वह उस विषयका शास्त्र। किसी भी विषयके साचे परिचय और सो अनुभवको परिचय और अनुभव जितनं जितनं पुरा करं, वहीं 'शास्त्र' कहा जाना चाहिये ।
प्रमाणमें गहरा तथा विशाल उतनं ऐसा शास्त्र कौन ? उपयुक्त व्याख्यानुसार तो उतने प्रमाण में वह शास्त्र उस विषयमें अधिक महत्व किसीको शास्त्र कहना ही कठिन है । क्योकि कोई भी का । इस प्रकार महत्वका आधार गहराई और विशा- एकशास्त्र आज तककी दुनिया ऐमा नहीं जन्मा जिलता होने पर भी उस शास्त्र की प्रतिष्ठाका आधार तो सका परिचय और अनुभव किसी भी प्रकार फरफार उसकी यथार्थता पर ही है । अमुक शास्त्र में परिचय पान योग्य न हो या जिसके विरुद्ध किसीको कभी कुछ विशेष हो, गहनता हो, अनुभव विशाल हो, तो भी कहनका प्रमग ही न आवे; तब ऊपरकी व्याख्यानुसार उसमें यदि दृष्टि-दोष या दूसरी भ्रान्ति हो तो उस जिम शास्त्र कह सकें एसा कोई भी शास्त्र है या नहीं? शास्त्रकी अपेक्षा उसी विषयका थोड़ा भी यथार्थ परि- यह प्रश्न होता है। इसका उत्तर सरल भी है और चय देने वाला और सत्य अनुभव प्रकट करने वाला कठिन भी है । यदि उत्तरकं पीछे रह हुए विचारमें दूसरा शास्त्र विशेष महत्वका है और उसीकी सी बंधन, भय या लालच न हो तो उत्तर सरल है, और प्रतिष्ठा होती है। शास शब्दमें 'शास्' और 'त्र' ये यदि वे हा तो उत्तर कठिन भी है । यात ऐसी है कि दो शब्द हैं । शब्दों से अर्थ घटित करनेकी अति मनुष्यका स्वभाव जिज्ञासु भी है और श्रद्धालु भी है। प्राचीन रीतिका श्राग्रह यदि नहीं छोड़ना हो तो ऐसा जिज्ञासा मनुष्यको विशालतामें ले जाती है और श्रद्धा कहना चाहिये कि 'शास' शब्द परिचय और अनभव उसे दृढता प्रदान करती है। जिज्ञासा और श्रद्धाके पुरा पाडनका भाव सचित करता है और 'त्र' शब्द साथ यदि दूसरी कोई आसुरी वृत्ति मिल जायता वह त्राणशक्तिका भाव सूचित करता है । शास्त्रकी त्राण- मनुष्यको मर्यादित क्षेत्रमें बाँधे रख कर उसीमें सत्य शक्ति वह जो कुमार्गमें जाते हुए मानवको रोक कर (नहीं नहीं, पूर्ण सत्य ) देखनको बाधित करती है। रक्षा करे और उसकी शक्तिको सचेमार्गमें लगा देव। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य किसी एक ही ऐसी त्राणशक्ति परिचय या अनुभवकी विशालता पर वाक्यको,या किसी एक ही ग्रंथको अथवा किमी एक अथवा गंभीरता पर अवलम्बित नहीं, किन्तु यह मात्र ही परम्पराके प्रन्थसमूहको अंतिम शास मान लेता