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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा
६४५ हमारे जैन शास्त्रके इतिहासमें में अवश्य मिल सकते बनाता है। इसी बातको दूसरी रीतिसे कहिये तो ऐसा है। जहाँ तक मैं समझता हूँ वहाँ तक ऐसे प्रश्न उत्पन्न कहना चाहिये कि जीवनकी तृष्णाका प्रभाव और होनंका और उनका समाधान न मिलने । मुख्य का- एकदेशीय दृष्टिका प्रभाष यही समा जैनत्व है । सरण जैनत्व और उसके विकासक्रमके इतिहासविष• बाजैनत्व और जैनसमाज इन दोके बीच जमीन भा. यक हमारे प्रधानमें रहा हुआ है।
समानका अन्तर है । जिसने सच्चा जैनस्व पूर्णरूपसे जीवनमें सथे जैनत्वका तेज कुछ भी न हो, मात्र अथवा थोडे-बहुत प्रमाणमें साधा हो वैसी व्यक्तियों परम्परागत वेश, भाषा और टीका-टणमणका जैनत्व का समाज बैंधता ही नहीं भौर बंधे भी तो उसका जाने अनजाने जीवन पर लदा हुआ हो और अधि- मार्ग ऐमा निराला होता है कि उसमें झंझटें खड़ी कांशमें वस्तुस्थिति समझने जितनी बुद्धिशक्ति भीनहो होती ही नहीं और होंभी तो शीघ्र ही उनका निराकरण तब ऊपर दिये हुए प्रश्नोका समाधान नहीं बनता। हो जाता है। इसी तरह जीवनमें थोड़ा बहुत सचा जैनत्व उद्धृत जैनत्वको साधने वाले और सोही जैनस्वकी हुआ हो तो भी विरासतमें मिले चालू क्षेत्रके अतिरि- उम्मीदवारी करने वाले जो गिनेगिनाये हर एक कालमें क्त दूसरे विशाल तथा नये नये क्षेत्रोमें खड़ी होती होते हैं वे तो जैन है ही । और ऐसे जैनोंके शिष्य पहेलियोको बझने की तथा वास्तविक जैनत्वकी चाबी या पत्र जिनमें सच्चे जैनत्वकी उम्मीदवारी मले प्रकार लगा कर उलझन के तालोको खोलनेजितनी प्रज्ञा न ही होतो ही नहीं बल्कि मात्र सच्चे जैनत्व के साधकों और तबभी इन प्रश्नोकाममाधान नहीं बनता। इससे जरूरत उम्मीदवारों के धारण किये हुए रीतिरिवाज या पाली इस बातकी है कि सच्चा जैनत्व क्या है ? इसे समझ हई स्थलमर्यादाएं जिनमें होती है वे मब जैनसमाजक कर जीवन में उतारना और सभी क्षेत्रोमें खड़ी होने अंग है । गुण-जैनोंका व्यवहार प्रान्तरिक विकासके वाली मुश्किल (कठिनाई) को हल करनेके लिये जैन- अनमार घड़ा जाता है और उनके व्यवहार तथा प्रा. त्वका किस किस रीतिसे उपयोग करना इमकी प्र- न्तरिक विकामके बीच विसंवाद नहीं होता; जबकि झा बढ़ानी।
मामाजिक जैनों का इसमें उलटा होता है। इनका नाम अब हमें देखना चाहिये कि सबा जैनब क्या? व्यवहार तो गुगा-जैनोंकी व्यवहारविगमतमेंसे ही और उसके ज्ञान तथा प्रयोगद्वारा ऊपरके प्रश्नोका उतरकर पाया हुआ होता है परन्तु प्रान्तरिक विकासका अविरोधी समाधान किस गनिस हो सकता है ? सथा छींटा भी नहीं होना-वेता जगतकं दूमरे मनुष्यो जैनत्व है ममभाव और सन्यष्टि जिनका जैनशास्त्र जैसे ही भोगतृष्णा वाले तथा मंकीर्ण दृष्टि वाले होने क्रमशः अहिसा तथा अनेकान्तदृष्टि के नामसे परि- हैं।एकतरफान्तरि फजीवनका विकास जग भी न हो चय कराता है। अहिंसा और अनेकान्तदृष्टि ये दोनों और दूसरी तरफ वैमी विकामवाली व्यक्तियोंमें पाये आध्यात्मिक जीवन के दो पंख (पर) हैं अथवा जाने वाले पाचारणांकी नकल हा नब यह नकल दो प्राणपद फेफड़े हैं । एक भाषारको उम्बल विसंवादका रूपधारण करती है नथा १८ पद पर कठिकरता है तब दूसरा को शुद्ध और विशाल नाश्या खड़ी करती है । गण-जैनस्वकी साधना के लिये