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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ तीसरा निन्हव
पहुँचे । वहाँ उस समय मौर्यवंशीय 'बलभद्र" नामक
राजा राज्य करता था । वह श्रावकं था । उसे मालूम श्वेतविका नगरीमें भार्यापाढ़ नामक प्राचार्य
हुआ कि अव्यक्तवादी निह्नव यहाँ आये हैं और थे। वही वाचनाचार्य भी थे। वे जिस दिन वाचना
'गुणशिलक' चैत्य में ठहरे हैं । राजा ने उनको अपने चार्य नियुक्त हुए, उसी दिन गत्रिमें उन्हें हृदयशूल पास बला भेजा और सेना से कुचलवा कर मार हो गया, और उसीसे उनका देहान्त हो गया । वे मर डालने की आज्ञा दे दी। जब सेना और हाथी उन्हें कर सौधर्म स्वर्गमें देव उत्पन्न हुए । उनकी मृत्यु का कुचलने के लिए आए तो वे बोले-"राजन् हम हाल किसी को मालूम न हुआ।
जानते हैं, तुम श्रावक हो, फिर श्रमणों के प्राण क्यों दव (प्राचार्य) ने अवधिज्ञानके द्वारा सारा पूर्व लेते हो?" वृत्तांत जान लिया और उनके जो शिष्य 'श्रागाढयोग' राजा ने कहा-"मैं श्रावक हूँ या नहीं, यह किस कर रहे थे उसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए, वे फिर मालम है ? और आप लोग भी चोर हैं, लुटेरे हैं, अपने पूर्व शरीर में पा घस । जब शिष्यों का आगाढ या साध हैं, यह भी कौन जान सकता है ?" योगसमाप्त हुआ तो उन्होंने इस बातकी क्षमा माँगी माध-"हम लोग साधु हैं।" कि मैंन असंमयी होते हुए भी साधुओं से बंदना कराई गजा-"तो अव्यक्तवादी बनकर परस्पर वंदना है। इसके सिवाय उन्होंने अपना सब हाल कह सुनाया। व्यवहार क्यों नहीं करते ?"
श्राचार्य के वेषमें देव को इतने दिनों से वन्दना इस तरह बहुत समझाने बुझाने से वे सब प्रतिआदि करते रहने से साधुओं का विचार आया कि बुद्ध हो गये और लज्जित होकर मन्मार्ग पर आ गये। संयमी-असंयमी का तो कुछ पता नहीं चलता, बेहतर अन्त मे राजा ने कहा-"आप लोगों को प्रतिबोध है कि, किमी की वन्दना की ही न जाय । इस प्रकार देने ही के लिए मैंने ये सब उपाय किये थे।" उन साधान आपसमें वन्दना करना बन्द कर दिया। इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है।
शविर साधुओं ने उन्हें बहुतग समझाया कि यदि जो प्रत्येक के साधुत्व में ही संदेह करते हैं वे जिनोक्त V सर्वत्र संदेह ही संदेह है तो फिर उस देव की सक्ष्म पदार्थों पर कैसे विश्वास कर सकते हैं ? इसी
पेर क्यों विश्वास करते हो ? संभव है वह देव मे वे निहव कहलाए। हो,भत्र है न हो । जमके कहने में यदि उसे तुम
चौथा निन्हव लोग देव मानते हो ना अपने आपको माधु कहने वीर-निर्वाण के २२० वर्ष बाद मिथिलापुरी में वालों को साघु भी समझो । देव की अपेक्षा साधु का 'मामुच्छेदिक' निह्नव उत्पन्न हुआ था। महागिरिसरि कथन अधिक विश्वासयोग्य होता है । युक्तियों से के कौण्डिन्य नामक शिष्यका शिष्य 'अश्वमित्र' था। समझाने पर भी जब वे साधु कुछ न समझे नो उन्हें यह निलव महावीर-निर्वण के २१४ वर्ष बाद हुआ बतसंघ से अलग कर दिया गया।
लाया गया है। परन्तु इस समय में किसी 'पलभद्र' नामक मौर्य बहिष्कृत साध पर्यटन करते करते राजगृह नगरमें वंशीय श्रापक राजा का पता मुझे नीं लगा। -खेवक
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