Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 601
________________ ARO अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ पष्पमित्र' को बिठा दिया। प्राचार्य स्वर्गवासी हो गये। हृदयोद्वार जब गोष्टामाहिलको यह वृत्तान्त विदित हुआ तो उमे बड़ी ईर्षा हुई। एक बार विन्ध्य 'कर्मप्रवाद' नामक पर्व पढ रहा कब आयगा वह दिन कि बनं साधु विहारी ॥ टेक ॥ था। इसमें यह प्रकरण पाया कि कर्म धात्माकं साथ दुनियामें कोई चीप मुझे थिर नहीं पाती, इस प्रकार बद्ध हो जाते हैं जैसे अग्नि लोहके गोलके और प्राय मेरी यों ही तो है बीतती जाती। साथ । गोष्ठामाहिल छिद्र ढूंढ ही रहा था । यह अच्छा मस्तक पै खड़ी मौत, वह सब ही को है श्राती; मौका मिला । वह बोला-जब कि कर्म अात्माकं राजा हो, चाहे गणा हो, हो रंक भिखारी ॥१॥ साथ एकमेक हो जाते हैं तो छट नहीं सकतं । जैस संपत्ति है दुनियाकी, वह दुनियामें रहेगी; जीवके प्रदेश परस्पर एकमेक हानेके कारण जुदे नहीं काया न चले साथ, वह पावकमें दहेगी। हो सकते। अतः यह मानना चाहिए कि जैसे साँप और इक ईट भी फिर हाथसे हर्गिज न उठेगी; उसकी कॉचलीका स्पर्श मात्र होता है, वैसे ही कर्म बंगला हो, चाहे कोठी हो, हो महल अटारी ।।२।। श्रात्माके साथ सिर्फ स्पष्ट होते हैं,-बद्ध नहीं होते। बैठा है कोई मस्त हो, मसनदको लगाये; कुछ दिन बाद उसने दूसरी विधतिपत्ति पैदा की। मांगे है कोई भीख, फटा वस्त्र बिछाये । साधु जीवन-पर्यन्त मावद्य-योगका प्रत्याख्यान करते हैं। अंधा है कोई, कोई बधिर हाथ कटार; गोष्ठामाहिलने इस अनचित ठहराया । वह कहनं व्यसनी है कोई मम्म, कोई भक्त पजारी ।।कबा ३ लगा-प्रत्याख्यानक विषयमं काल की अवधि न हानी खेले हैं कई खेल, धरं रूप घनरः चाहिए । मर्यादा-भले ही वह जीवन भरकी हो- स्थावरमें त्रमा में भी किय जाय बसरे। जोड़नस, मर्यादाके बाद भागकी आकाँक्षा बनी रहती होत ही रहे हैं यां सदा शाम-सवेर; है । अर्थात् जीवन के बाद स्वर्गमें जाकर देवांगनाओंके चक्करमें घमाता है सदा कर्म-मदारी ।।कबा४ भोग आदिकी इच्छा रह जाती है। इस इच्छाके कारण सब हीम मैं रक्खूगा सदा दिल की सफाई; वह प्रत्याख्यान निर्दोष नहीं हो सकता। . हिन्दू हो, मुसलमान हो, हो जैन-ईसाई। श्राचार्य दुर्बलिकापष्पमित्रने तरह-तरह के तकौम मिल-मिलके गले बाँटेंगे हम प्रीति-मिठाई; उसे समझाया पर वह अन्त तक न माना । पहलके श्रापसमें चलेगी न कभी द्वेष-कटारी ।।कब०||५ छह निलव तो अन्तमें रास्ते पर आ गय थे * परन्तु सर्वस्व लगाकं मैं करूं देश की सेवा, गोष्ठामाहिल निलव ही रहा। घर-घर पे मैं जा-जाके रखं झानका मेवा । इस प्रकार यह सातों निहवां का संक्षिप्त परिचय दाखाका सभी जीवोंके हो जायगा छेवा, है । विशेषावश्यक-भाष्यमें इनके सिद्धान्तोंका निरा- भारत न देखेंगा कोई मूर्ख-अनारी ।।कबला ६ करण भी दिया है । अस्तु; इनके ममयसम्बंध कुछ जीवांको प्रमादोसे कभी मैं न सताऊँ, विचार ऊपर प्रकट किया जा चका है। और भी बहुत करनीक विषय हेय हैं, अब मैं न लभाऊँ। सी बातें ऐसी हैं जो विचारणीय तथा परीक्षणीय हैं। जानी हं सदा ज्ञानकी मैं ज्योति जगाऊँ समता में रहूंगा मैं सदा शुद्ध-विचारी |कबार पहले निजवक परिचयमै तो उसका रास्ते पर जाना प्रकट नहीं किया गया, तब क्या उसके प्रतिबोधकी बात छुट गई या पांच ही निब गम्ने परमाए। -सम्पादक * श्रीपं घ.मलाल सेठीके 'महेन्द्रकुमार' नाटकका एक अंश ।

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