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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] मिथ्या धारणा मिथ्या धारणा है, वे उक्त सिद्धान्तका बिलकुल दुरुप- है, और उनको जीतकर अपने वश में करना ही मुखा योग कर रहे हैं और उन्होंने उसके वास्तविक प्राशय का एक मात्र मार्ग है । अतः जो मार्ग इष्ट हो उस पर को जरा भी नहीं समझा है-न तो उन्हें मूजीकी खबर चलना चाहिये-सुख चाहने हो ता इन्द्रियोंको अपने है और न ईजा की । यदि इस सिद्धान्तका वही श्रा- अधीन करी और दुःख चाहते हो तो इंद्रियाक अधीन शय लिया जाय जैसा कि वे समझ रहे हैं और तदन- हो जाओ, उनके गुलाम बन जाओ। कूल प्रवर्त रहे हैं-अर्थात् यह कि, जो कोई प्राणी कवि 'जौक़' ने भी नफसको प्रहा मूजी का। किसी दूसरे प्राणीको थोड़ासा भी दुख देने वाला ही देते हुए उसीको माग्नकी प्रेरणा की है । वे कहते है .. वह मूजी है उसको मार डालना चाहिये, तो ऐसी हा- “किसी बेकसका ऐ बेदादगर | मारा तो क्या मारा ? लतमें मनुष्य सबसे पहले मूजी और वधयोग्य ठहरते जो खुदही मर रहा हो उसको गर मारा तो क्या मारा ? हैं। क्योंकि ये बहुतसे निरपराधी जीवोंको सतात और बड़े मूजीको मारा नफसे अम्माराको गर मारा। उनको प्राणदण्ड देते हैं। परन्तु यह किसीको भी नहंगो अजदहाओ शेरे नर मारा तो क्या माग" इष्ट नहीं है । अत एव ऐसा प्राशय कदापि नहीं है। दूसरा आशय इस सिद्धांतका यह भी निकाला जा इस सिद्धान्तका साफ आशय और असली प्रयोजन सकता है कि, जब तक ज्ञानावरण प्रादिक कर्म, जो यह है कि मनुष्यों को अपने नामको मारना चा- आत्माके परम शत्रु हैं और इस प्रात्मा को संसारम हिये। अपनी इन्द्रियों ( हवास नमसा ) को वशमें परिभूमण कराकर नाना प्रकारकं कष्ट देते हैं, उदयमे करना चाहिये । येही मूजी हैं। इन्हींके कारणसे इस श्राकर इस पान्मा का दुःख और कष्ट देवे अथवा प्रात्माको नाना प्रकारके जन्म-मरण तथा नरक-निगा- ईजा पहुँचा। उससे पहले ही हमको तप-संयमादिरूप दादिकके दुःख और कष्ट उठाने पड़ते हैं । इन्हीं के धर्माचरण के द्वारा उनको मार डालना चाहिये-उनको प्रसादसे श्रात्माके साथ कर्म-बन्धन होकर उमके गणों निर्जरा कर देनी चाहिये-जिसमे व हमको ईजा का घात होता है, जिससे अधिक श्रात्माक लिये और (दुख ) न पहुंचा सकें। कोई ईजा नहीं हो सकती है और न इनसे अधिक इन दोनों आशयों के अतिरिक्त उपयुक्त सिद्धांत आत्मा के लिये और कोई मूजी ही हो सकता है । इन
का यह आशय कदापि नहीं हो सकता कि इन्द्रियोंका निग्रह करने और इनकी विषय-वासनाको
किसी प्राणधारीका वध किया जावे । ऐसा प्राशय रोकने तथा राग-द्वेषरूप परिणतिको हटानेसे ही इस
करने से दयाधर्मके सिद्धांतमें विरोध पाता है । वर, आत्माके दुखकी निवृत्ति होकर उसे सबे सुखकी प्राप्ति
सिद्धांत तब अधर्ममयी हो जानेसे मर्वथा हेय ठहरता हो सकती है । नीतिकारोंने बहुत ठीक कहा है:
है और किसी भी दयाधर्म के मानने वाले को उस पर भापदा कथिनः पन्था इन्द्रियाणाम संयमः ।
आचरण नहीं करना चाहिये । यह कैसी खुदराकी
और अन्याय है कि जिस बातको हम अपने प्रतिकूल तज्जयःसंपदा मार्गो यनेष्टं तेन गम्यताम् ।।
सममें या जिस वधादिको हम अपने लिये पमन्दन अर्थान-मुसीबतों तथा दुःखोंके भानका एकमात्र
करें उसका आचरण दूसरों के प्रति करें। मार्ग इन्द्रियोंका असंयम-उनका वशमें न करना