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अनकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ तो नम्र प्रार्थना है कि वे कमसे कम इस अमूल्य ग्रंथ उल्लेख से पता चलता है, यह प्रन्थ अभी पूग उपके उपलब्ध भागको ही छपवा कर महा पुण्य प्राप्त लब्ध नहीं हुआ । जेसलमेरकी प्रतिके अन्तमें 'समाकरें । इस ग्रन्थके दूसरे प्रकाशका अंतिम भाग इस सपरीक्षानामप्रकरण' है, 'आहतमत-प्रभाकर-मंडल प्रकार है :
पुना' में १॥ अध्याय 'न विपतिपत्त्यप्रतिपत्तिमात्रम्' __रूपंच सत्व (च्व) मथवादिविटेविलप्तमित्थं (२, १, ३४ ) सूत्र तक मूल और 'न चाविज्ञातयदा' स्थितिमनीयत पुलानाम् । तन्मा कहा- स्वरूपं परपत्रं भेत्तुं शक्य मित्याहुः ' (पृष्ठ १०८) चिदपि पुद्गल तार्थमीनी (१) संदीदृशन्यदि भ. टीका तक छपा है । अर्थात् मुद्रित भागकी अपेक्षा बन्तितमाम् (मा) कृतज्ञाः ।।
जेसलमेरमें कुछ अधिक भाग है । सम्पूर्ण ग्रन्थ इति श्रीगमचन्द्रगुणचन्द्रविरचितायां स्त्री
(पाँच अध्यायका) यदि उपलब्ध हो जाय तो विद्वानोंको पनद्रव्यालङ्कार-टीकायां द्वितीय पुद्गलप्रकाशः
न्यायके सम्बन्धमें बहुत कुछ नवीनबातें मिलेंगी। श्र
नुमानतः सम्पूर्ण प्रन्थ लगभग ५००० श्लोकका होना समाप्तः।
चाहिये , जिसमें प्रमाण और जीवादि प्रमेय * का तीसरं प्रकाशके अंतमें निम्न लिम्वित उल्लेख है
३ 'आन्हिकसमूहात्मकैः पञ्चभिरध्यायैः शास्त्रम
तदरचयदाचार्यः । वयं श्रीहेमचन्द्रसूरिः) ।' नापीन्दुद्युतिनिर्मलाय यशसे नो वा कृते संपदः ।
__---प्रमाणमीमांसा पृष्ट २। भावाभ्यामयमाहतः किमुबघा(१) द्रव्यप्रपंचश्रमः
। यद्यपि उपलब्ध तीन आन्हिकों ( १॥ अध्याय) में प्रमेयका संदर्भान्तरनिर्मितावनवममनापकर्षश्रिये ॥
वर्णन नहीं पाया परन्तु अन्धकाग्ने स्वयं ही प्रारम्भमें कहा है कि
'तेन न प्रमाणमात्रस्यैव विचारोऽत्राधिकृतः । किन्तु तइति श्रीरामचन्दगुणचन्द्रविरचितायां स्वो- देकदेशभूतानां दुर्नयनिराकरणद्वारेण परिशोधितमापाद्रव्यालङ्कारटीकायां ततीयोऽकंपप्रकाश इति गाणां नयानामपि । " प्रमाणनयैरधिगमः" इति हि संवत् १२०२ सहनिगेन (ना) लिखि ।
वाचकमुख्यः , सकल पुरुषार्थेषु मूर्धाभिषिक्तस्य सोपा
यस्य सप्रतिपक्षस्य मोक्षस्य च । ( विचारोऽत्राधिकृतः) २ प्रमाणमीपासा
एवं हि पूजितो विचारो भवति प्रमाणमात्रविचारस्तु सर्वविद्यानिष्णात प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सुरिजी
प्रतिपक्षनिराकरणपर्यवसायी वाकलहमानं स्यात् ।
( प्रमागामीमांसा सूत्र १०४ माईतमतप्रभाकरकी भावृत्ति) रचित यह प्रन्थ गौतमकृत 'न्यायसूत्र' (गौतमसूत्र ) इसमें मालूम होता है कि इस प्रमाणपीमांसामें न्य, दुर्नय, प्रारम्ब, पतिका है । पाँच अध्यायोंमें यह प्रन्थ पूरा किया मकर, निर्जरा, मोक्षादिका भी वर्ग,न तत्त्वार्थ' की तरह होगा, तथा हुमा होना चाहिये, ऐसा प्रमाणमीमांसाके प्रारम्भके पृथ्वी काय मादिमें जीवसिद्धि भी विरतारसे होगी । यह भी पृष्ठ२८
सूत्र १, १, २२ क 'पृथ्वादीनां च प्रत्येकं जीवत्वसिद्धि, जेसलमेर-भागडागारीय-प्रथानां सूवी' में यया' पाठ रप्रेक्ष्यते" उल्लेखस अनुमान होता है। "प्रमास्णय विषयो उतारा है।
द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' (१, १, ३१)सबसे तो सामान्य प्रमेय २ 'जैसलमेर-भाषागारीय-ग्रंथाना स्वी' में 'पुगसताकाही लक्षण कहा है और यह प्रमाणलक्षण पहले प्रान्हिमें ही ममीनी पाठ लिखा है।
मा गया है।