________________
५००
अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८,९, १० छोड़ दी गई हैं।
सहस्र नामोंमें इस प्रकारके नाम पाये जाते हैं । इस स्तोत्रक माहात्म्यमें इस स्तोत्रको अष्ट महासि- प्रकार के स्तोत्रों द्वारा परस्पर सद्भावकी वृद्धि हानी है द्वियोंका दाता, सर्व पापोंका निवारक, सर्व पुण्यका और एकको दूसरेके देवताका नाम लेकर गाली देने कारण, सर्व दोपोंका हर्ता, सर्व गणोंका का और बुरा-भला कहने अथवा उसके प्रति अपशब्दोंका प्रयोग महाप्रभावको लिये हुए बतलाया है । साथ ही, यह करने के लिये कोई स्थान नहीं रहता । और इसमें यह भी लिखा है कि इस एकादश मंत्र गजोपनिपद गर्भित म्तोत्र स्तोत्रकारकी महनी उदारताका द्योतक है । श्रास्तोत्र को जपने, पढ़ने, सुनने, गननं और बाग्वार कान्तदृष्टिको स्पष्ट करते हुए, इस स्त्रोत्रकी पूरी व्याख्या चिन्तवन करने वाले भव्य जीवोंके लिय ऐसी कोई करनेके लिये अधिक विस्तार की ज़रूरत है । अस्तु । भी सद्वस्तु नहीं है जो उन्हें प्राप्त न हो सके; उन पर जिन भाईयोंको इस स्तोत्रकी काई प्रति किमीभंडाभवनपनि, व्यन्तर, ज्यातिष्क नथा वैमानिकदेव प्रसन्न में उपलब्ध होवे उनसे निवेदन है कि वे नीचे प्रकाशिन होने हैं; उनकी व्याधियाँ दूर हो जाती हैं; पृथिवी, म्तात्र परमे तुलना करके, उमकी विशेषताओंको नोट जल, अग्नि, वायु और आकाश उनके अनुकूल होन करके भेजनेकी कृपा करें । और यदि इम पर कोई हैं; उन्हें सर्वसंपदामूल जनानुगगकी प्रानि होती है; मंस्कृत टीका भी उपलब्ध हो तो उसमे जरूर मचिन माधजन प्रसन्न-चित्त में उन पर अनग्रह करते हैं। करें ।
-सम्पादक उनको हानि पहुँचाने वाले दुष्टजन शान्त हो जाते हैं, जलस्थल-गगनचार्ग कर जन्तु भी उनके माथ मैत्रीभावको धारण करते हैं, इह लोक-मम्बन्धी शुद्ध गोत्र स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, जीवन, यौवन, रूप, ॐ नमोऽहते परमात्मने परमज्योतिष आरोग्य और यश जैसी सभी संपदाओंकी उन्हें प्राप्ति परमपरमेटिने परमवेधसे परमयोगिने परमेश्नमय होती है और क्या,स्वर्गापवर्गकी लक्ष्मियाँ (विभूतियाँ तमसः परस्तात सदोदितादित्यवाणाय समृला. भी उन्हें क्रमशः वरनके लिये ममुत्सुक होती हैं।
न्मूलितानादिमकलक्केशाय ॥ १ ॥ ___ स्तोत्र एक दृष्टिसे प्रायः सुगम है और इस लिये
ॐ नमो भभुवः स्वस्वयीनाथमौलिमंदारउसका अर्थ दनकी कोई खास जरूरत नहीं समझी
मालाचिंतक्रमाय सकलपपार्थयोनिनिरवद्यवि. गई। हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि इस स्तोत्रमें
द्याप्रवर्तनकवीराय नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषअर्हन्त देवका बहुतसे ऐसे नामोंके द्वारा उल्लंम्ब अथवा स्तोत्र किया गया है, जो हिन्दू देवताओं के प्रसिद्ध " जयपुरकी प्रतिमें यहां यह "१" मन छूट गया है। क्योंकि नाम हैं। ये सब नाम शुभ अर्थों तथा उत्तम गणोके अगले मन पर मव्याङ्क २ दिया हुमा हे परन्तु पाटनकी प्रति में
यहां भक दिया ही नहीं बल्कि प्रथमा दस मन्त्रके अंतमें दिया है योतक हैं और इस लिये अनेकान्तात्मक उदार दृष्टि
मौर इस तरह उसमें मन्त्रोंकी अन्तिम सख्या १० दी है जो एक
गलती जान पड़ती है। क्योंकि इस स्तोत्र के माहात्म्यमें मंत्रों की हन्तोंके गुणप्रत्यय नाम है, रूढगात्मक नहीं । अनेक ११ मंत्र्या का म्पत्र उन्लेख है ।