________________
५३१
आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र हिसाब करते समय तो कौड़ी और पाई तकके लिए व्यवहार देखा जाय, तो उसमें आपको बड़े बड़े पर्वमाथापञ्ची की जावे और रुपयोंकी रक़में परीकी परी ताकार पापों के सिवाय ऐसे छोटे छोटे पाप तो नजर हड़प कर ली जायँ ! वास्तवमें देखा जाय, तो इस ही नहीं आयेंगे। उस समय ये कहेंगे-भाई साहब, कौड़ी-पाईकी माथापच्चीके कारण ही बड़ी बड़ी रकमों क्या किया जाय ? लेन देन, व्यापार, मुकद्दमें मामले, की ओर किसीकी दृष्टि नहीं जाती है । अँगरेज़ीमें एक गवाही साखी, आदि कामोंमें झठ बोले बिना इस कहावत है, जिसका अभिप्राय यह है कि "कौड़ीकी- पंचमकालमें गुजर कहाँ ? रेलवे कम्पनियोंके साथ,
और अधिक दृष्टि रखनेसे रुपयोंकी आरम ला-परवाह चुंगीवाल के साथ और माप-तोल आदिमें कुछ-न-कुछ होना पड़ता है।" हमारे उपर्युक्त आचरणोंके विपयमें चोरी करनी ही पड़ती है । इत्यादि कहने योग्य बातें यह कहावत अच्छी तरहसे चरितार्थ होती है। तो त्यागी भाई स्वयं कह देंगे, शेप बातें आप उनके
जैनियोंमें त्याग-मर्यादाका भी बड़ा जोरशोर है। पास दश दिन रह कर और अड़ोसी-पड़ोसियोंसे जिससे पूछिए वही कहता है कि मैं पृथिवीकी दश दरयाफ्त करके जान लेंगे। हिंसाके विषयमें आपको लाख वनस्पतियों ( हरियों) मेंस केवल १०-२०- यह मालम होगा कि मनुष्य जाति पर इनके हृदयमें २५ या पचास खाता हूँ, आलू बैंगनका कभी स्पर्श दयाका लश नहीं-सैकड़ोंको दानं दाने के लिए कर भी नहीं करता, बारहों महीना या चौमास में रातका दिया है, रुपयोंके लोभसे अपनी सुकुमार लड़कियों को जल नहीं पीता, रातको पान-सुपारी तकका भी मुझे यमकं यजमानांके गले बाँधकर उनके जीवन के सुग्वको त्याग है, कन्दोंमेंस और तो क्या मैं सम्वी हल्दी और सदाकं लिए छीन लिया है और उन्हें पापमय जीवन मोठ भी नहीं खाता हूँ, अष्टमी चतुर्दशीको भोजन बिताने के लिए लाचार किया है । गर्भपात और भ्रगाहनहीं करता, जैनीके सिवा किसी दूमरंके हाथका पानी त्यायें तक कर डाली हैं; मूक घोड़ा, बैल आदि जानभी नहीं पीता, घरका दूध घी खाना हूँ, इत्यादि इत्या- वगेको मरतं मरत तक जाता है, उनकी घायल पीठों दि । यह सुनकर यदि कोई विदेशी पुरुप हो,तो आश्चर्य और कन्धों पर जग भी रहम नहीं किया है, अपने नहीं कि जैनजातिको एक तपस्वि-सम्प्रदाय ममझ बैठे; घरकी स्त्रियों को ज और ग्वटमलों के मंहारका प्रायः ठेका परन्तु उपर्युक्त बातोंके त्यागियोंके अमली चारित्रकी दंबग्वा है, और व्यभिचारका ना कुछ ठिकाना ही नहीं। यदि जाँच की जाय,तो सारी ढोलकी पोल खुल जाय। जिसके घरमें जितना अधिक धन है, उसके यहाँ प्रायः ये लोग मन्दिर में और शास्त्रसभाओं में बैठ कर तो तना ही अधिक व्यभि बार है । बच्चास ले कर बुढा जैनशास्त्रोंके बतलाये हुए अतिक्रम-व्यनिक्रमादि छोटेम तकके सिगं पर इसका महरा बंधा हा मिलेगा। भी छोटे पापोंके विषयमें बाल की खाल निकालेंगे और बाप यह ना चाहता है कि मरी १४ वर्षकी विधवा किसीनं यदि कह दिया कि हरी वनस्पतिको पका कर बेटी ब्रह्मचर्यस रहे, परंतु आप स्वयं पचासके पार हो खाने में सातवीं प्रतिमा तकके धारण करनेवाले श्रावक- जाने पर भी पाप-पंकसे पार नहीं होना चाहता, और को दोष नहीं है, तो उसके सिर हो जायेंगे और उसे जवान बेटों तथा बहुओंके होने पर भी दुलहा बननके नरक-निगोदमें भेजे बिना न रहेंगे; परन्तु यदि इनका लिए तैयार रहता है। तृष्णाके विषयमें तो कुछ पूछिए