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अनकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ नंदीस्त्रमें है,आर्य नागहस्तिम आर्य नागाभवाचक हूँ। ( प्रभावकचरितमें इन आचार्यका परिचय पादनक 'वाचकवंश' होना संभव है । खास करके आर्य लिमसरिका कुल और विद्याधर शाखासे दिया है।' नागार्जुन और आर्य रेवती नक्षत्र के वाचकवंश का कालिममयअणुभोगस्म धारए धारएम पयाणं उल्लेख्य है (गाथा ३०-३१) नागार्जुन वाचक शिष्यको हिमवनखपासपणे बंदे णागज्जुणायरिए ॥२५॥ प्राचार्यपदसे और परंपरागत अंनिम मुनिको गणि: मिउमहवपने पारणपन्निवायगत्तणं पत्ते ।। पदमे विभूषित किया है । इन सब विपयोंका यथार्थ । स्वरूप जानने के लिय नंदीमत्रकी थाडीसी गाथाएँ यहाँ आपसमाचार ना
ओघसुयसमायारे नागज्जणवायए. वंदे । ३६॥ दे देनी आवश्यक हैं, उन्हीं का उल्लेग्य करके मैं अपना ___'कालिक श्रुत अणुयोगके धारक पूर्वविन्' हिमलेग्य ममात करूँगा:
वंत क्षमाश्रमणको और नागानन आचार्यको वंदन भणगं करगं झग्गं पभावगं नाणदंसणगणाणं। करता हूँ, मनको तुष्टिकारक कोमल स्वभाववाले वंदामि अजमंग मयसागरपारगं धीरं ॥८॥
योग्यताके अनुसार वाचक पदमे प्रतिष्ठित और उत्सर्ग
श्रतके धारक नाम वाचकको नमस्कार करता हूँ। _ 'जो पढ़नमें लीन हैं, क्रियाकारक हैं, ध्यानी है,
नागार्जुन ऋषिके पीछे अनक्रममे आर्य भनिदिन्न ज्ञानदर्शनके प्रभावक हैं, श्रुतसागरक पारगामी हैं और धेययुक्त है उन्हीं आर्य मंगको नमस्कार करता है। श्राय लाहित्य और दव्य गरिण हुए है। (गाथा ३७-४१) नाणमिदं सर्पमि भ नविणए णिच कालमजतं ।
इन पाठोंसे म्पष्ट है कि-य आचार्य ज्ञान, क्रिया,
| ध्यान, अध्ययन, अध्यापन, दर्शनकी प्रभावना, कालिक ___ 'पाय मंगुके शिष्य आनंदिलचपण, जो निर- श्रत अनयांगकी विधि, वगैरह ज्ञान और कर्मकाण्ड तरबान, पशन और विनयम उद्यमवंत थे ।'
में लीन रहते थे । आर्य 'नागहस्ति' और आर्य बाउ वायगवंसो जसवंसो भजनागहन्थोणं । वतीनक्षत्र' का वाचकवंश विद्यमान था। आय बड़उ वायगवंसा रेवानक्खत्तनामाणं ॥३०-३१ 'कंदिल' और आर्य भनदिन्न' प्राचाय हुए थे ।
'माय नविलक्ष्मण के शिष्य आय नागस्ति का आर्य 'सिंह' व आर्य · नागार्जुन' वाचक थे, आय यशस्वी वाचकवश वृद्धिको प्रान कग। उनहोंके शिष्य दृष्य' गागधे । वर्तमान कालमें उपलब्ध आगमसंग्रह वतीनक्षत्रका वाचकवंश वृद्धि को प्रान हो। श्रीस्कंदिलाचार्य और नागार्जन वाचक श्रुनसंरक्षक प्रयलपुराणिक्वंते कालिममयमाणमोगियधीरे प्रयास की प्रामादी है। विद्यमान कालमे जो कालिक संभहीवगमींद वायगपयमुत्तमं पत्ते ।। २ ।।
' अत है वे उस कालमे भी वाचक वंशसंमत थे। और
आर्य नागार्जन' योग्यताम ही 'वाचक' हुए थे। 'अचलपरमें जिनकी दीक्षा हुई है. जो कालिक पंडितजाँके कथनानसार यह वाचकवंश श्वेताम्बरअतके अनयोग वाले हैं, धीर हैं, उत्तम वाचक पदमें निगंबरके भेदसे रहित मध्यस्थ था (पृष्ठ ३९५) । इसके स्थित हैं और प्रायद्वीपक शाखा वाले हैं वे आर्य मिर आगमसंग्रहको जब श्वेताम्बर सम्प्रदायने अपनाया है (जो पार्य रेवतीनक्षत्रके वाचना-शिष्य थे)।'
तब दिगंबर सम्प्रदायने उसे अपना क्यों नहीं माना,यह जसिं इमो मनांगा पयरप्रामावि महमरहमि। एक जटिल प्रश्न है । इसका उत्तर पार करने के लिये बहनगरनिग्गयजसे नं बंदे खंदिलायरिए॥३॥ तत्त्वविदोंको अति प्रयाम करने की आवश्यकता है। ___जिनका अनुयोग ( भूतसंग्रहादि) आज भी भाई यहाँ इतना तो स्पट हो जाता है कि वाचक उमाभरतक्षेत्रमें विद्यमान है और जिनका यश बहतसे नग स्वातिजी 'वाचक' थे किन्तु उपयुक्त वाचकवंश'के में व्याम है न स्कदिखाचार्यको मैं नमस्कार करना नहाय ।