________________
पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] तत्वार्थसूत्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ
५९५ अपनी वृत्तिमें दार्शनिक और तार्किक चर्चा करकं भी किये विना संतोष धारण नहीं कर सकते,फिर भी किसी अन्तमें जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी तरह आगमिक स्थल पर उन्होंने दिगम्बरीय साम्प्रदायिक व्याख्यानों परम्पराका प्रबल रूपसे स्थापन करते हैं और इस स्था- की समालोचना की ही नहीं । जो अपने पूर्ववर्ती ठयापनमें उनका आगमिक अभ्यास प्रचर रूपसं दिखाई ख्याकारोंके सत्र या भाष्य-विषयक मतभेदोका तथा देता है । सिद्धमेनको वृत्तिको देखते हुए मालूम पड़ता भाष्य-विवरण-सम्बंधी छोटी बड़ी मान्यताओंका थांका है कि उनके समय पर्यंत तत्त्वार्थ पर अनेक व्याख्याएँ भी नोट लिये बिना न रहे, और स्वयं मान्य रक्खी रची गई थीं । किसी किसी स्थल पर एक ही सूत्रके हुई श्वेताम्बर परम्पराकी अपेक्षा तर्कबलसे सहज भी भाष्यका विवरण करते हुए वे पाँच, छह मतान्तर विरुद्ध कहने वाले श्वेताम्बरीय महान पाचार्यों की नोट करते हैं, इससे ऐसा अनुमान करनेका कारण कटक समालोचना किये विना सन्तोष न पकड़े वह मिलता है कि सिद्धसननं वृत्ति रची तब उनके सामने सिद्धसन व्याख्याविषयमें प्रबल विगंध रखने वाले कमसे कम तत्वार्थ पर रची हुई पाँच टीकायें होनी दिगम्बरीय आचार्योकी पूरी पूरी खबर लिये विना रह चाहियें । जो सर्वार्थसिद्धि आदि प्रसिद्ध दिगम्बर्गय सके यह कल्पना ही अशक्य है । इससे ऐसी कल्पना तीन व्याख्याओंसे गंदी होंगी, ऐसा मालूम पड़ता है; होती है कि उत्तर या पश्चिम हिन्दुस्तानमें होने वाले क्योंकि गजवार्तिक और लोकवार्तिक की रचनाके तथा रहने वाले इन श्वेताम्बरीय आचार्यको दक्षिण पहले ही सिद्धसेनीय वृत्तिका रचा जाना बहुत सम्भव हिन्दुस्तानमें रची हुई तथा पुष्टि को प्राप्त हुई नस्वार्थहै; कदाचित उनसे पहले यह न रची गई हो तो भी परकी प्रसिद्ध दिगम्बर व्याख्याएँ देखनेका शायद भवइसकी रचनाके बीच में इतना तो कम अंतर है ही कि सर ही न मिला हो । इसीप्रकार दक्षिण भारतमें होने सिद्धसेनका गजवात्तिक और श्लोकवार्तिकका परिचय वाले अकलंक आदि दिगम्बरीय टीकाकारोंको उत्तर मिलनेका प्रसंग ही नहीं आया । सर्वार्थसिद्धिकी रचना भारतमें होनेवाल तत्कालीन श्वेताम्बरीय टीकाग्रंथोंका पूर्वकालीन हो कर सिद्धसेनके समय में वह निश्चय- देखने का अवसर मिलना मालूम नहीं पड़ता; ऐसा होने रूपस विद्यमान थी यह ठीक परन्तु दूरवर्ती देशभेदके पर भी सिद्धमनकी वृत्ति और गजवातिकमें जो कहीं कारण या दूसरे किसी कारणवश सिद्धसनको सार्थ- कहींपर ध्यान खींचनेवाला शब्दसादृश्य दिखाई देता, सिद्धि देखनेका अवसर मिला हो ऐमा मालुम नहीं वह बहुन कर के नो इतना ही सूचित करता है कि या पड़ता । सिद्धसन,पूज्यपाद आदि दिगम्बरीय आचार्यों किसी तीमरं ही समान पंथकेअभ्यामकी विरासनकी तरह, साम्प्रदायाभिनिवेशी हैं ऐसा उनकी वृत्ति ही का परिणाम है । सिद्धसेनकी वत्तिमें नस्वार्थगन कहती है । अब यदि इन्होंने सवाथसिद्धि या अन्य
२. एक तरफ. मिदसेनीय निमें दिगम्बरीय मूत्रपाठ-विरुद्ध कोई दिगंबरीयत्वाभिनिवेशी प्रन्थ देखा होता तो उसके
समालोचना कीं की विम्वाई देती है। खामगांक तौर परप्रत्याघातरूप ये भी उम उस स्थल पर दिगम्बरीयत्व
"अपरे पनविद्वांसोऽतिबहनि स्वयं विरचय्यास्मिन प्र. का अथवा सर्वार्थसिद्धिके वचनोंका निर्देशपूर्वक खंडन स्तावे सत्राण्यधीयते” इत्यादि ३, ११नी लि.
२५ देखो , ३ की सिझसेनीय पनि पृ० ३.१। तथा "अपरे मूत्रद्वयमेतदधीयने-द्रव्याणि-जीवाश्च"