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अनकान्त
वर्ष १, किरण ११, १२ चाहिए । परन्तु इस विषयमें यहाँ एक अपवादभूत पाठको ही अथवा उस व्यारव्याके अंशको ही अवलस्थल नोट करने योग्य है, जो एकका दूसरेमेंमे उद्धार म्बन कर हरिभद्र ने अपनी वृत्ति क्यों न रची हो ? होनेके विषयमें शङ्का उत्पन्न करता है । पाँचवें अध्या- हरिभद्रद्वारा अपनी वृत्तिके आधार पर स्वीकृत उक्त यका २९ वा सूत्र "उत्पादव्ययधोव्ययुक्त सत्" सत्रके व्याख्यापाठकी परीक्षा करते हुए इतना तो है। इस सत्रका जो भाष्यपाठ अवलम्बन कर सिद्ध- मालूम होता है कि यह व्याख्या-पाठ उमास्वानिके सेनन वृत्ति रची है वह भाष्यपाठ हरिभद्रकी उद्धृत भाष्यका अंश न होकर किसी दूसरी ही व्याख्याका वृत्तिमें नहीं और हरिभद्रद्वारा अवलम्बित इस सूत्र- अंश होना चाहिये, क्योंकि इसमें भाष्यकी तरह सरल का भाष्यपाठ सिद्धसनकी वृत्तिमें नहीं । जैन तत्त्व- प्रतिपादन न होकर तार्किक लेखकको शोभा देने वाला ज्ञानके मर्मभूत उक्त सूत्रकी दोनों वृत्तियोंमें भाष्य- ऐसा सहेतुक प्रतिपादन है । चाहे जैसा हो परन्तु इस पाठ-विषयक इतना गोलमाल कैसे हुआ होगा ? इस एक अपवादभूत स्थलको छोड़ कर विचार किया पहेलीका हल अभी तक नहीं हो सका है । यदि सिद्ध- जाय तो यह छोटी वृत्ति प्रस्तुत बड़ी वृत्तिका उद्धार है, सेनीय वृत्तिको सामने रख कर ही हरिभद्रन अपनी ऐसा इस समय मानना उचित जान पड़ता है। वृत्ति सक्षेपमें लिखी हो तो उसमें सिद्धसेनद्वारा अब- सर्वार्थसिद्धि और राजवातिकके साथ सिद्धसेनीय लम्बित भाष्यपाठ होना चाहिये और यदि किसी वृत्ति की तुलना करिये तो स्पष्ट जाना जाता है कि कारणवशात हरिभद्रनं इस भाष्यपाठको छोड़ दिया जो भाषाका प्रसाद, रचनाकी विशदता और हो और अपने को सुलभ ऐसा ही दूसरा भाष्यपाठ अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवास्वीकृत किया हो तो भी उनके द्वारा अपनी वृत्तिमें तिकमें है, वह सिद्धमेनीय वृत्तिमें नहीं । इसके पाठान्तरके तौर पर सिद्धसनद्वारा अवलंवित भाष्य- दो कारण हैं । एक तो ग्रन्थकारका प्रकृतिभेद और पाठका नोट होना चाहिये, ऐसी मम्भावना रक्खी दूसरा कारण पराश्रित रचना है । सर्वार्थसिद्धिकार जाय तो यह कुछामधिक मालूम नहीं होती । परन्तु और राजवात्र्तिककार सूत्रों पर अपना अपना वक्तव्य हम हरिभद्रकी वृत्तिमें वैसा नहीं देखतं । इससे पनः म्वतन्त्र रूपसे ही कहते हैं जब कि सिद्धसनको भाष्य प्रश्न होता है कि क्यों हरिभद्रने सिद्धसेनीय वृत्तिस का शब्दशः अनुसरण करते हुए पराश्रितरूपसे चलभिन्न दूसरी ही किसी वृत्तिका आश्रय न लिया ना है। इतना भेद होने पर भी समग्र रीतिसे सिद्धसे. हो कि जिसमें उनके द्वारा स्वीकृत उक्त सत्रका भाष्य नीय वृत्तिका अवलोकन करते मन पर दो बातें तो पाठ होगा ? दूसरी तरफ ऐसी भी कल्पना होती है अंकित होती ही हैं । उनमें पहली यह कि सर्वार्थसिद्धि कि कदाचित् उक्त सूत्रके सिद्धसेन सम्मत भाष्यपाठ- और राजवात्तिककी अपेक्षा सिद्धसेनीय वृत्तिकी दार्शको पाठान्तरके तौर पर नोट किये बिना ही हरिभद्र- निक योग्यता कम नहीं । पद्धति भेद होने पर भी ने उसे छोड़ दिया हो और सर्वत्र सिद्धसेनीय वृत्तिका समष्टि रूपसे इस वृत्तिमें भी उक्त दो प्रन्थों-जितनी ही ही माधार लेते हुए भी उक्त सूत्र में दूसरी किसी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और बौद्धदर्शन-चर्चाकी ब्याख्याको आधारभूत मान कर उममें स्वीकृत भाष्य विगमन है । और दूसरी बात यह है कि सिद्धमेन