Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 583
________________ ६०२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ स्थान मोह ने ले लिया। इन बगईयों को देख कर सब थे। अतः दण्डविधान और राजसंस्थाकी भी कोई लोग एक स्थान पर एकत्र हुए और उन्होंने चावलोके अवश्यकता प्रतीत न होती थी । किन्तु पीछेसे वस्तुखेतों को श्रापसमें बॉट लेने तथा उनकी रक्षाकं लिये ओंके यथेष्ट परिमाणमें न मिलनेके कारण मनुष्योंमें चागं ओर बाड़ा बनाने की स्कीम उपस्थित की, जो असन्तोषकी लहर उत्पन्न हुई, जिसने वैयक्तिक संपत्तिममय को देखते हुए स्वीकार करनी पड़ी और उसके वादको जन्म दिया और साम्यवादका स्थान वैयक्तिक अनुसार चावलोंके वेतोंका बटवाग हो गया तथा संपत्तिवादने ले लिया। चूंकि मनुष्योंका श्रान्तरिक उनके चारों ओर बाड़ भी बना दी गई । इनने पर भी खास प्रारम्भ हो चुका था, अतः ज्यो ज्यों असन्तोषकी कुछ लालची मनुष्योंने दूसरोंके खेतों पर हाथ मारना अग्नि प्रवल होती गई त्यो त्यों मनुष्यों में लाभ और प्रारम्भ कर दिया। अपराधियोंको यथोचित दण्ड दिया मोहकी मात्रा बढ़ती गई। इस पतनकी दशामें जो जाने पर भी उक्त घटनायें बढ़ती ही गई। तब फिर मब होना चाहिये था वही हुआ-जनतामें अनेक प्रकार लोग एक जगह एकत्र हुए और उन्होंने विचार किया की बुराईयाँ उत्पन्न हो गई और ममष्य चोरी तथा कि हममें अनेक बराईयाँ उत्पन्न हो गई हैं-चारी असत्यभाषण आदि निन्दनीय अपराध करनेमें तत्पर और असत्य भाषणका प्रादुर्भाव हो गया है-अक्छा हो गये । जनताके द्वाग अपराधियोंकी भर्त्सना होने हो यदि हम एक मनुष्यको अपना मुखिया बनालें जो पर भी "मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्या दवा की" की कहाअपराधके अनुसार अपराधीकी दगडव्यवस्था किया वत चरितार्थ होने लगी । देशमें अव्यवस्था और अशाकरे । हम लोग इसके बदले में उसे अपने अपने चा- न्तिकी लहरें जोर पकड़ने लगीं। उपायान्तर न होनेसे बलोंका एक भाग दिया करेंगे। इस विचारके अन- उसका दमन करने के लिये दण्डविधान और राजसंस्थामार वे एक ऐसे मनुष्य के पास गये जिसे सब लोग का प्रादुर्भाव हुआ । और इन्हीं गजसंस्थाओंकी कार्यमानते थे और जो सब में योग्य था। उसके सामने पद्धति 'गजनीति' के नामसे विख्यात हुई। जनताने अपना विचार उपस्थित किया और वह गजी यह तो हुई 'राजनीति' या 'राज्य' की उत्पत्तिकी हो गया, तब सब लोगोंने उसे चावलों का एक भाग कमण कहानी, अब धर्मके प्रादुर्भाव पर भी कुछ प्रप्रधान किया और वह महासम्मत कहलाया। काश डालना आवश्यक है। यह एक सर्वसम्मत सि ऊपर उद्धृत जैन, हिन्दू तथा बौद्धधर्मके सृष्टि- द्धान्त है कि धर्म एक अनादिनिधन सत्य है-न उसकी सम्बंधी इतिहासका परिशीलन करनसे यही सारांश उत्पत्ति होती है और न सर्वथा विनाश ही। किन्तु निकलता है कि, सृष्टिके आदिमें मनुष्य पूर्ण सुखके समयका प्रभाव उस पर भी पड़ता है जिससे वह कभी साथ निवास करते थे, समस्त आवश्यक वस्तुएँ उन्हें लुप्त हो जाता है और कभी आविर्भूत । भांगभूमिकालयभेष्ट परिमाणमें उपलब्ध होती थीं और इस लिये में मनुष्य सुखी, संतोषी और विलासी होते हैं और मगढेकी कोई समस्या उपस्थित ही न होती थी। निर्विघ्न भोम-विलास मनुष्यको अकर्मण्य बना देता है। इन्हीं कारणोंसे उस समय वैयक्तिक संपत्तिवादका इसीसे भोगभूमिया मनुष्य भी अपनी अपनी सहचरी प्रचार न था, मनुष्य संतोषी और सरल परिणामी होते के साथ आमोद-प्रमोदमें ही विशाल प्राय बिता डालते

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