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आश्विन, कार्तिक, बीरनि०सं० २४५६ ] तत्वार्थसूत्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ
और प्रस्तुत सर्वार्थसिद्धिके नामका पौर्वापर्य सम्बन्ध अज्ञात है, परन्तु वार्त्तिकोंके विषय में इतना निश्चित है कि एक बार भारतीय वाङ्मय में वार्तिकयुग आया और भिन्न भिन्न सम्प्रदायों में भिन्न भिन्न विषयोंके ऊपर वार्त्तिक नामके अनेक प्रन्थ लिये गये । उसीका
स्वार्थ परके प्रस्तुत वार्त्तिको नामकरण पर है। अकलंकन अपनी टीकाका नाम 'गजवार्त्तिक' खा है, इस नामका दूसरा कोई ग्रंथ पूर्वकालीन अन्य विद्वानका अभी तक मेरे जाननेमे नहीं आया; परन्तु विद्यानन्दका 'लोकवार्त्तिक' नाम कुमाग्लिके ‘श्लोकवार्त्तिक' नामके असरका आभारी है इसमें कुछ भी शङ्का नहीं ।
तस्वार्थमूत्र पर कलङ्कने जो 'राजवार्त्तिक' लिम्बा है और विद्यानन्दने जो 'लोकवार्त्तिक' लिया है, उन arrier मूल आधार सर्वार्थसिद्धि ही है । यदि अक लङ्कको सर्वार्थसिद्धि न मिली होती तो राजवार्तिकका वर्तमान स्वरूप ऐसा विशिष्ट नहीं होता, और यदि राजवार्त्तिकका आश्रय न होता तो विद्यानन्दके श्रांकवार्त्तिक में जो विशिष्टता दिखलाई देती है वह भी न होती, यह निश्चित है। राजवार्तिक और कवार्त्तिक ये दोनों साक्षान और परम्परामे सर्वार्थसिद्धिके ऋणी होने पर भी इन दोनोंमें सर्वार्थसिद्धिकी अपेक्षा विशेष विकास है। उद्योतकर के 'न्यायवार्त्तिक और हुआ धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्त्तिक' की तरह 'राजव निक' गद्य में है, जबकि लांब क' कुमारिल के लोकवार्त्तिक' की तरह पथमें है । कुमारिलकी अपेक्षा विद्यानन्दकी विशेषता यह है कि उन्होंने स्वयं ही अपने पद्यवार्तिककी टीका लिखी है। राजवार्तिकमें लगभग समस्त सर्वार्वसिद्धि या जाती है फिर भी उसमें नबीनता और प्रतिभा इतनी अधिक है कि सर्वार्थसिद्धिको
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साथ रखकर राजवार्तिकको बाँचते हुए भी उसमें कुछ भी पौनरुक्तय दिखाई नहीं देता । लजग्गनिष्णात पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिगत सभी विशेष वाक्योंको अकलङ्कने पृथकरण और वर्गीकरणपूर्वक वार्षिक परिवर्तित कर डाला है और वृद्धि करने योग्य जो बातें नजर आती थीं उनके अथवा वैसे प्रश्नोंके विषय में नवीन वार्त्तिक भी रचे है ? और सब गय वार्तिकों पर स्वयं ही स्फुट विवरण लिखा है। इसमे समरूपसे देखते हुए, 'राजवार्षिक' सर्वार्थसिद्धि का विवरण होने पर भी वस्तुतः एक स्वतन्त्र ही प्रन्थ है । सर्वार्थसिद्धिमे जो दार्शनिक अभ्यास नजर पड़ता है उसकी अपेक्षा राजवासिकका दार्शनिक अभ्यास बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है। राजवार्षिकका एक ध्रुव मन्त्र यह है कि उसे जिस बात पर जो कुछ कहना होता है उसे वह 'अनेकान्त' का आश्रय लेकर ही कहता है । 'अनेकान्त' गजवार्तिककी प्रत्येक चचाकी नाबी है। अपने समय पर्यन्त भिन्न भिन्न सम्प्रदायोंके विद्वाननि 'अनेकान्त' पर जो आक्षेप किंव और अनेकान्तवादकी जो टियाँ बतलाई उन सबका निरसन करने और अनेकान्तका वास्तविक स्वरूप बनलानेके लिये ही अकलंक ने प्रतिष्ठित तस्वार्थसूत्र के पाये (आधार) पर सिद्ध लक्षण वाली सर्वार्थसिद्धि का आश्रय लेकर अपने गजवार्तिक की भव्य इमारत वड़ी की है। सर्वार्थसिद्धिमें जो श्रागमिक विषयोंका अति विस्तार है उसे राजवार्तिककारने घटा कर कम कर दिया है और दार्शनिक विषयोंकों ही प्राधान्य दिया है।
दचिण हिन्दुस्तान में निवास करने विद्यानन्यने देखा कि पूर्वकालीन और ममकालीन अनेक जैनगर
२३ तुलना करो १, ७ की मि तथा जानक