Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 567
________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ ने तो कर्णाटक भाषामें भी टीका लिखी है, और बाकी भेद है और वह यह कि जगत् , जीव, ईश्वर आदि सबने हिन्दी भाषा में टीका लिखी है। जैसे तत्वज्ञानके मौलिक विषयोंमे ब्रह्मसूत्रके प्रसिद्ध व्याख्याकार एक दूसरेमे बहुत ही भिन्न पड़ते हैं और (ख) व्याख्याएँ बहुत वार तो उनके विचारोंमें पूर्व-पश्चिम-जितना अपने ऊपर रची हुई साम्प्रदायिक व्याख्याओके अंतर दिखलाई देता है, तब दिगम्बर, श्वेताम्बर संप्रविषयमें 'तत्वार्थाधिगम' सत्रकी तुलना 'ब्रह्मसूत्र' के दायका अनुसरण करने वाले तत्वार्थके व्याख्याकारों साथ हो सकती है । जिस प्रकार बहुतसे विषयों में मे वैसा नहीं है । उनके बीच तत्वज्ञानके मौलिक परस्पर बिलकुल भिन्न मत रखने वाले अनेक प्राचा- विषयों पर कुछ भी भद नहीं है और जो कुछ थोड़ा यौने' ब्रह्मसूत्र पर व्याख्याएँ लिखी हैं और उममेंस बहुत भद है भी वह बिलकुल साधारण जैसी बातोंमें ही अपने वक्तव्यको उपनिषदोंके आधार पर मिद्ध है और वह भी ऐसा नहीं कि जिसमें समन्वयको करनेका प्रयत्न किया है। उसी प्रकार दिगम्बर श्वेता- अवकाश ही न हो अथवा वह पूर्व-पश्चिम-जितना म्बर इन दोनों सम्प्रदायोंकि विद्वानोंने तत्त्वार्थ पर अंतर हो । वस्तुतः तो जैनतत्वज्ञानके मूल सिद्धान्तों व्याख्याएँ लिम्बी हैं और इसमेंसे ही अपने परस्पर के सम्बंधमें दिगम्बर, श्वेताम्बर सम्प्रदायोंम खास विरोधी मन्तव्यों को भी आगमकं आधार पर फलित मनभेद पड़ा ही नहीं; इसमें उनकी तत्वार्थव्याख्याओं करनेका प्रयत्न किया है। इस परम सामान्य बात इतनी में दिखाई देने वाला मतभेद बहुत गम्भीर नहीं गिना ही सिद्ध होती है कि जैसे ब्रह्ममत्रकी वेदान्तसाहित्य- जाता। में प्रतिष्ठा होनक कारण भिन्न भिन्न मत रखने वाले तत्वार्थाधिगम सत्रक ही ऊपर लिखी हुई प्राचीन, प्रतिभाशाली भाचार्यान उस ब्रह्मसत्रका आश्रय लेकर अर्वाचीन, छोटी, बड़ी, संस्कृत तथा लौकिक भाषामय उसके द्वारा ही अपने विशिष्ट वक्तव्यको दर्शाने की अनेक व्याख्याएँ हैं; परन्तु उनमेंसे जिनका ऐतिहासिक आवश्यकता अनुभव की वैसे ही जैन वाङमयमें जमी महत्व हो, जिनन जैनतत्वज्ञानको व्यवस्थित करनेम हुई नस्वार्थाधिगमकी प्रतिष्ठा कारण ही उसका श्रा- नथा विकसित करनेमें प्रधान भागलियाहा और जिनका श्रय लेकर दोनों सम्प्रदायोंक विद्वानोंने अपने अपने स्वास दार्शनिक महत्व हो ऐसी चार ही व्याख्याएँ इस मन्तव्यों को प्रकट करनेकी जरूरत मालम की है। समय मौजद हैं। उनमें से तीन तो दिगंबर संप्रदायकी इतना स्थल साम्य होते हुए भी ब्रह्ममूत्र और तत्वार्थ हैं,जो मात्र साम्प्रदायिक भेदकी ही नहीं बल्कि विरोध की साम्प्रदायिक व्याख्यानों में एक खास महत्वका की तीव्रता होने के बाद प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वानों द्वारा एकन ही नहीं किन्तु दिवाकरनन्दी,बालकन्द प्रादि नि. लिखी गई हैं और एक खुद सूत्रकार वाचक उमास्वाति गरविकानेनि पर्यटक भाषामें टीका लिखी हैं। -सम्पादक की स्वोपक्ष ही है । साम्प्रदायिक विरोधके जम जानेके १६ इसके लिये देखो, तत्वाभाष्य हिन्दी अनुवादको प्रस्ता- बाद किसी भी श्वेताम्मर भाचार्यके द्वारा मूल सूत्रों ला, प. श्री माथामजी प्रमीलिखित । पर लिखी हुई दूसरी बैसी महत्वकी व्याख्या अभी तक १७ शंकर, निम्बार्क, मध, रामानुज, पाम, माहिने। जाननेमें नहीं आई। इससे इन चार व्याख्याओं के

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