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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगमार्ग
५४३ है। बल्कि वैसा करना परम कर्तव्य है । परन्तु योग- का उन पर सहसा कोई आक्रमण नहीं होता, उनकी साहित्यका यह सब संकलन तभी हो सकता है जब आँखोंकी ज्योति तथा अन्य इन्द्रियों की शक्ति अबाकि जैनसमाजमें इसके कुछ रसिक पैदा हों और उन- धित बनी रहती है, जठराग्नि प्रदोन रहती है, कब्जकी के द्वारा योगसाहित्यका पूरा शोधन- अन्वेषण-हो शिकायत होने नहीं पाती, हकीम-डाक्टगे अथवा दवाकर उसमेंसे योग विद्याका अच्छा दोहन किया जाय। इयोंके पीछे उन्हें भटकना नहीं पड़ता; उनका शरीर ऐसे रसिकोंको उत्पन्न करने अथवा जैनियोंमें योग- हलका, तेजस्वी, कान्तिमान, सुडौल, काम करनेमें विषयक जिज्ञासा पैदा करनेके लिये ही, सम्पादक समर्थ गठीला और फर्तीला बना रहता है और मनमें 'अनकान्त'की प्रेरणा पर, आज 'अनकान्त' द्वाग, इम सदा उत्साह, माहस, धैर्य और प्रसन्नताका निवास योगचर्चाका प्रारंभ किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों- रहता है । वे वृद्ध होने पर भी युवा बन रहते हैं । यदि में योगमार्गके जानने वाले योगि-विद्वानोंकी सेवा कर गृहस्थजन शुझमे ही अपने बच्चोंको योगके मार्ग पर
और योगविपयक जैन-अजैन ग्रंथांका अध्ययन कर डालें तो वे उनके जीवन को बहुत कुछ मार्थक, सफल मैंने जो कुछ ज्ञान सम्पादन किया है और खुद यांगका तथा मानन्द बना सकते हैं और संसार से वैद्यों, हकीमों अभ्यास कर जो थोड़ा-बहुत अनुभव प्राप्त किया है, तथा डाक्टरांकी आवश्यकताको एक दम कम कर उसीके आधार पर मेरा यह सब प्रयत्न है। और यह सकते हैं । समाजके गौरवरूप ऐम सद् गृहस्थोंमेंस प्रयत्न जहाँ तक हो सकेगा सरल शब्दामें ही किया फिर यदि कोई मुनि बनें तो वे मुनिधर्मका ठीक पालन जायगा और उसके द्वारा सरल योगमार्ग ही पाठकों- कर सकते हैं और सच्चे मुनि बनकर अपना तथा जगत के सामने रक्खा जायगा।
का हित माधन कर सकते हैं । साथ ही, जैनशासनका ___ हाँ, अपने इस अनुभव तथा अध्ययन के आधार- समारमें अच्छा उद्यात कर मकते हैं । अस्तु । पर में सबसे पहले इतना जरूर कहूँगा कि जो लोग इस प्राथमिक निवेदन के बाद अब मैं प्रकृत विषयगृहस्थावस्थासं पहले और गृहस्थावस्थामें भी ठीक यांगा- को लेता हूँ।
(क्रमशः) भ्याम करते हैं उनके शरीर मदा नीगंग रहते हैं,गेगों
'शान्ति' का नोट 'शान्ति' नामकी जो कविता पृ० ५०४ पर मुद्रित हुई है उसके विषयका एक नोट छपनसे रह गया है, वह इस प्रकार है :
__"यह कविता एक अजैन बन्धकी लिखी हुई है, और इसलिये इसमें जिन दा घटनाओंका उल्लेख है वे हिन्दू पुराणोंसे सम्बंध रखती हैं। श्रीगणभद्राचार्य-विरचिन जैनमहापुराण के अनुसार राजा मगरके पुत्र किमी मुनिकी दृष्टिस भस्म नहीं हुए थे, बल्कि एक देवन कर सर्पका रूप धारण कर उन्हें मूर्छित करके भस्म गशिम्पमें परिणत किया था—'कुमागन् भम्मगशि वा व्यधात् करोरगाकृतिः'-, जो बादको मायाभस्मके दूर होने पर सचेत हो गये थे । परंतु जैनपुराणों में दीपायन आदि ऐसे अनेकों शान्त मुनियोंके उदाहरण मौजद हैं जिन्हें यदि क्रोध आया है तो फिर नगरके नगर भस्म हो गये हैं, और इमलिये 'मुनि-नयन-पावककी एक चिनगारीसे भस्म होना' कोई अनोखी बात नहीं है।"
-सम्पादक